Monday, November 17, 2008

सीता वनबास



हम आज खुलकर बहस नही कर पाये. कारण नेट...आज राम रावण को लेकर मूड बना भी तो नेट ने बात नहीं बनने दी. बहस की मकसद, अपनी अक्ल की धाक जमाने का नहीं...बहस जीतने के लिये भी नहीं! यह कुछ खोजने के लिये होती है. जो सच के करीब हो उस मुद्दे को और गहराइ से समझने में मदद करे.


हम मुद्दे खोजते हे फिर उस पर बहस करते है. अकसर बहस दो तरफा होती है. मतलब की आप एक साइड मैं दूसरी साइड....हम जीतने के मकसद से सिर्फ वो ही बोलते हे जिसे बोलने से आपनी साइड मजबूत बने ..... बिलकुल आदालती बहस की तरह! नतीजा हम अकसर सच से दूर हो जाते हे..जिस सच की तलाश के लिये बहस शुरू की थी उससे भटक जाते है.

मजा तब हे की जब मैं आपकी नजर से देख सकू और आप मेरी नजर से. और फिर जब दोनों एक साथ देखे तो कुछ नया दिखे...कुछ ऐसा मिले जो हम दोनो की मिली जुली खोज हो...

आज की बहस में, राम ने सीता के प्रति लोकाचरण के चलते जो किया मेरी चिंता वो नहीं है ..मेरी चिंता यह हे की अगर में राम की जगह होता तो क्या करता. मामला संदर्भ के साथ...की जब राज्य व्यवस्था यह मानती हे आपका अपना दोषी हे, वो जो आप के दिल के करीब हे. वो जो आप को जान से प्यारा हे दोषी हे, तो आप क्या करेंगे...क्या आप अपने का साथ देंगे... अपने राज्य का साथ देंगे...या फिर बेशर्म होकर नियम ही बदल देंगे. या फिर तानाशाह की तरह अपने जान से प्यारे को बचा लेंगे. या फिर नियम के तहत जो सज़ा हे उसे देगे.

एक बात और अगर राज्य किसी को दोषी मानता हे. राजा को मालूम हे कि वो दोषी नहीं हे...पर उसके पास सबूत भी नहीं जो यह बता सके की वो दोषी नहीं हे. उस वक्त राजा क्या करे. राज्य के लिये उसे उस अपने को बलि (सज़ा) देना चाहिये या फिर राजा को अपना अधिकार दिखाते हुये उसे बचा लेना चाहिये. अगर वो उसे बचा लेता हे तो ...राज्य को क्या रास्ता दिखा रहा है....राज्य उस घटना को कैसे देखेगा.

मुझे इस बहस को आगे बढाने मे खुशी होगी.... 

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