Friday, June 14, 2013

परमाणु ऊर्जा ही क्यो?

दुख है की लोकतांत्रिक प्रक्रियासे चुने गये हमारे प्रतिनिधी इतनी सी बात नही समझ पा रहे है की “ परमाणु ऊर्जा महज बिजली उत्पादन की बात नहीं है, परमाणु ऊर्जा सिर्फ तकनीक नहीं है, यह घातक तकनीक है, यह मंहगी तकनीक है, जनविरोधी तकनीक है, विकास विरोधी तकनीक है, मनुष्य और पशु की जिन्दगी का सवाल है, जैवविधता के अस्तित्व का सवाल है, जंगल और खेती के नष्ट होने का सवाल है, पानी के प्रदूषित होने का सवाल है, पर्यावरण विनाश का सवाल है, मानवजाति की आजीविका का सवाल है, जनभावनाओं का सवाल है, मानव अधिकारों के हनन का सवाल है. और इन सवालों को हल किये बिना कोई परियोजना कैसे लगाई जा सकती है?”


क्या वो भूल गये की केसे एक सुनामी जापान जेसे देश को बरबादी के कागार पर ला आइ थी. हजारों मरे और लापता हुये. फुकुशिमा के परमाणु रिएक्टरों से हुई तबाही पर नियंत्रण नहीं कर पाने के बाद जापान सरकार ने इन रिएक्टरो को हमेशा के लिए नष्ट करने का निर्णय लिया पर क्या उन्हे दफन करना इतना सरल होगा?

याद है! 1986 में युक्रेन का चर्नोबिल परमाणु संयंत्र का हादसा, जिससे तत्काल लगभग 5,500 मौत के अलावा विकिरण के प्रभाव से लोग मौत से बदतर जिन्दगी जीते रहे. परमाणु विकिरण के प्रभावितों की बात हो तो 10 लाख से भी अधिक लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर इसके शिकार हुये. अंतराष्ट्रीय स्तर पर विरोध के सुर जोर पकड़ रहे है. कोई भी विकसित देश एक भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगा रहा है. जर्मनी में 8 परमाणु बिजलीघरों को बंद कर दिया और बाकि 9 परमाणु बिजलघरों को 2022 तक बंद करने का फैसला लिया. इटली में भी परमाणु बिजलीघरों की स्थापना पर प्रतिबंध लगा दिया. स्विटजरलैण्ड, वेनेजुएला व चीली में परमाणु उर्जा संयंत्रों के निर्माण पर रोक लगा दी गई.
यह सब जानते हुये भी भारत सरकार पुरानी तकनीक को देश में आयात करके,  मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में परमाणु संयंत्र लगाने की जिद्द पर अड़ी है. तर्क दिया जाता है कि यह तकनीक पूरी तरह सुरक्षित व सस्ती है तो क्या हमारे पास जापान और अमरीका से अधिक अनुभव और कुशलता है, जो हमें विकिरण की तबाही से बचा सके?. परमाणु कचरे को खत्म करना कठिन है. यह हजारों साल तक बना रहता है, और रहा सवाल सस्ती तकनीक का तो इसे लगाने, प्रबन्ध करने की बात तो दूर, इस तो बंद करना भी बहुत मंहगा है.
चलो मान लिया जाये की परमाणु उर्जा सस्ती है तो क्या इसीलिये हम लाखों लोगों की जान जोखिम मे डाल दें. चर्नोबिल क्रासदी हो या फिर सुनामी से बरबाद हुआ फुकुशिमा का परमाणु रिएक्टर. प्राक़ृतिक कहर के सामने हम असाहाय से बस देखते रहे.  यह सच है की देश उर्जा सकंट से गुजर रहा है, अगर सटीक कदम नही उठाये गये तो आने वाला समय इसे और भी सकंटमय बना देगा. 
मुझे इसका हल गेर परंपरागरत स्रोतों से प्राप्त उर्जा मे दिखाइ दे रहा है. अभी तक हम इसे वेकल्पिक उर्जा का नाम देकर इक्का दुक्का सरकारी योजानाओं के द्वारा खाना पूर्ती कर रहे है. अब समय आ गया है की सरकार खुलकर इस के पक्ष में आये और ताप और न्यूक्लियर बजलीघरों की जगह अब सोर उर्जा आधारित  बडी योजनाओं की शुरूआत करे.
अकसर पंरपरागत ताप बिजलीघरों के पक्षधर यह दलील देते है की इन बिजली घरों  से  बिजली 2 या 3 रूपये प्रति यूनिट मे मिल जाती है वंही सोर उर्जा सरकारी रियायत के बाद कम से कम 8 से10 रूपये प्रति यूनिट से कम नही है. इसके बारे मे मेरा कहना बस इतना भर है बिजली की कीमत उन से पूछो जो 16 घंटे की कटौती झेलते है और मजबूर होकर 25 से 30 रूपय्रे प्रति यूनिट कीमत अदा करते है. मजे दार बात यह है की जिस गरीब की दुहाइ सरकार देती है वो गांव के रोशनी के नाम पर केरोसिन लेम्प जलाने को मजबूर है अब कोइ मुझे बताये की उसे वो रोशनी किस कीमत पर मिली.
बडे पावरहाउस आप लगा नही पा रहे सोर उर्जा जेसे गैर पंरापरागत स्रोतों को गभीरता से यह देश लेना नही चाहता तो फिर इस देश की उर्जा जरूरत केसे पूरी होगी..या फिर इस देश की आम जनता अंधेरे मे रहने को अभिशिप्त है

जब जर्मनी जैसा देश जब सोर उर्जा की पहल कर सकता है तो उसकी तुलना मे हमारे यंहा तो सूर्य कुछ ज्यादा ही मेहरबान तो फिर हम क्यों नही उसका फायदा उठाते. एसी तकनीक जो सस्ती है, सुरक्षित है, आसानी से उपलब्ध है, फिर क्या कारण है की हम उसकी जगह परमाणु उर्जा के पीछे लगे हुये है.  कोयला या तेल आधारित उर्जा कुछ दशक ही हमारा साथ दे पायेगी इसलिये हमे इसका विक्लप तलाशन ही होगा.
इसका विकल्प डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर जनरेशन सिस्टम मे छुपा है.  मै समझता हू की नागरिक जरूरतों को हमें डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर जनरेशन सिस्टम के द्वारा गेर परंपरागत उर्जा स्रोतों को बढावा देते हुये पूरा करना चाहिये. इसके लिये किसी बढी धन राशी की जरूरत नही होती और इसे स्थानिय सहयोग द्वारा आसानी से पूरा किया जा सकता है.

सबसे अच्छी बात यह है की तकनीक बजार मे उपलब्ध है, महज राजनैतिक और समाजिक इच्छाशक्ति चाहिये. जिससे हम अच्छे और बुरे मे फर्क कर सके और जो सही है उसे चुन सके. इसके लिये अब एक सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन की जरूरत है. काश हमारे राजनैतिक दल ओछी राजनैति से बाहर आकर इस समस्या पर गोर करे. और हम भी टीवी पर आती पेड न्यूज देखते हुये सरकार और अपने को कोसना छोड कुछ सार्थक पहल करे...  जेसे हम:

1. हम सोर उर्जा को वेकल्पिक उर्जा ना बोलकर मुख्य उर्जा घोषित कर इसमे भारी निवेश करे.
3. ताप बिजली घरों से मिलने वाली उर्जा का लगभग 30% वितरण मे बरबाद हो जाती है या फिर चोरी हो जाती है. इसके अलावा वो अपने साथ पर्यावरण और सामाजिक समस्यायें भी साथ लेकर आती है. इसलिये इस तरह के बिजली घरों को बनाने का निर्णय लेते समय उसका सही मूल्यांकन करे.
4. हम नागरीकों को खुद के सोर उर्जा प्लांट लगाने के लिये प्रोत्साहित करे. सोर उर्जा के उपयोग के बदले हम उन्हे कारबन पाइटस दे सकते है. उनसे उर्जा खरीद सकते है.
5. एक बडे पावरहाउस की जगह छोटे छोटे पावर यूनिट कंही ज्यादा कारगर साबित हो सकते है जो स्थानीय जरूरतों को पूरा करते हुये अतिरिक्त उर्जा ग्रिड को दे सके.


इस पर अभी मथंन चालू है.....








Wednesday, June 5, 2013

बिगडते पर्यावरण पर घडियाली आंसू


कल 5 जून को पर्यावरण दिवस था और देश दुनिया के अखबार पर्यावरण के बिगडते हालात की चिंतओं से भरे थे. और उसके एक दिन बाद हमारे देश के राष्ट्रपति प्रवण मुखर्जी के भोपाल दौरे का जिक्र था, साथ मे एक खबर थी की अटल बिहारी बाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय की आधारशिला 100 एसी वाले विशाल पंडाल मे रखी जायेगी. इन एसी की क्षमता 750 टन होगी इसे चालू रखने के लिये 23 जनरेटरों की व्यवस्था भी की गई है. इसी तरह आरजीपीवी के 8वें दिक्षांत समारोह के लिये एसी पंडाल की व्यवस्था की गई है.
भारी धन राशी खर्च कर यह व्यवस्था इस लिये की गई है की कंही हमारे अति विशिष्ट अतिथी पर वर्षा की चंद बूंदे ना पड जाये!...या फिर माथे पर पसीने के बूंदे ना चमक उठे. अगर इसे लोक शाही कहते है तो फिर राज शाही क्या है?
इस तरह के सरकारी या अर्ध सरकारी आयोजन आम जन को क्या संदेश देते है! अगर यह सब जायज है तो फिर पर्यावरणिय चिंताओं पर घडियाली आंसू मेरी समझ से परे है...अगर आपकी समझ मे आ जाये तो मुझे बताना.