Wednesday, June 4, 2014

आधुनिक पैकेजिंग एक नई मुसीबत जो बन सकती है पर्यावरण के लिये वरदान?

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इलेक्टानिक सामान हो या मेकेनिकिल समान ग्राहक के पास पैकिंग के साथ दिया जाता है जिससे वो सही सलामत अपने गंतव्य तक पहुंच सके. इन की पैकिंग में थर्मोकोल, पोलीथीन, रबर, लोहा, लकडी, प्लास्टिक इत्यादी का बहुतियात से इस्तेमाल होता है. इन में से अधिकांश को रिसायकिल किया जा सकता है, पर उसके लिये जरूरी है की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली सामग्री रिसायकिलकर्ता तक पहुंचाया जा सके.
पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली सामग्री उसके प्रकार के अनुसार आसानी से छांटी जा सकती हो तो इस बात की अच्छी संभावना है की वो रिसायकिलकर्ता तक आसानी से पहुच जायेगी, पर आजकल बहुत से सामानों की मिक्स पैकिंग होने लगी है,  जैसे टेट्रापैक डिब्बे में सीलबंद जूस या फिर सील बंद थेली में मिलने वाले चिप्स और नमकीन्. इन पैकों की खासियत है की इनमें मिक्स पैकिंग कुछ इस तरह होती है कि इसमें रखा खाद्य पदार्थ बिना किसी रासायनिक मिलावट के भी बहुत दिनों तक सुरक्षित रहता है. इनके उपर की गई आकर्षक प्रिटिंग ग्राहक को आसानी से अपनी ओर खींच लेती है.
इस तरह के पैक 5ml से लेकर  2000 ml के पैकों मे आसानी से दुकानों में उपलब्ध है. बजार मे इन पैकिंग को रिसायकल पैक की तरह बेचा जा रहा है. पर इन्हे बेचने और खरीदने वाले अधिकांश लोगों को नही मालुम की यह रिसायकल कैसे होगा और रिसायकल प्रक्रिया में उनका क्या रोल है. अब उदाहरण के लिये टेट्रापैक को लें ले, इन पैकों को बनाने मे पोलीथीन, एल्यूमिनियम और पैपर की पतली लेयर का इस्तेमाल होता है. इसकी बनावट कुछ इस तरह होती है की वो एक दूसरे को सहयोग देते हुये लम्बे समय तक बिना खराब हुये बने रह सकते है.  अब इन खाली पैकों को आजकल नदी, नालों, और तलाबों और यंहा वंहा बेने कूडे के ढेरों पर आसानी से देखा जा सकता है. अगर यह रिसायकिल हो सकते है तो इन जगहों पर यह क्या कर रहे है?
इस तरह के पैकों में इस्तेमाल हो रहे पोलीथीन, एल्यूमिनियम और पैपर की रिसायकिल प्रक्रिया अलग-अलग है पर इसके बारे में लोगों को कोइ जानकारी नही दी गई. दुकानदार भी इन्हे बेचकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है और ग्राहक भी इन्हे इस्तेमाल कर किसी कूडेदान मे फेंक कर सोचता है की उसने भी अपना काम पूरी जिम्मेदारी से कर दिया. इस नये पैक के सही निस्पादन के बारे मे ना जनता को जागरूक किया गया. जब तक माल बिकिता हो तो  ना उसे बनाने वाले को उसकी फिक्र है और ना ही बेचने वाले को उसकी फिक्र है.



अगर इस पर अभी ध्यान नही दिया तो तेजी से पोलीथीन को पीछे छोडते हुये यह हमारे लिये नम्बर एक मुसीबत बन जायेगें. यह सच है की इन्हे रिसायकल किया जा सकता है. पर इस रिसायकिल प्रक्रिया की एक महत्व्पूर्ण कडी खुद वो ग्राहक है जो इसे खरीदता है. क्योंकी उसे ही यह सुनिश्चित करना होगा की उसके इस्तेमाल करने के बाद खाली पैक रिसायकिल यूनिट तक सही सलामत पहुचे सके. अधिकतर दुकानदारों के पास डस्टबिन की सुविधा होती है जिसमें ग्राहक पीने या खाने के बाद खाली रैपर या डिब्बा उसमें फेंक देता है. इन डस्टबिन मे मिक्स कचरा होता है. जिसे बाद में किसी कचरे के ढेर पर खाली कर दिया जाता है और वो ढेर फिर कीसी बढे ढेर का हिस्सा बन जाता है. दुकानदार की दुकान साफ इसलिये ग्राहक भी खुश!
इस पूरी प्रक्रिया में रिसाकिलीकरण का क्या हुआ! यह कचरा सालों साल  एसे ही कूडे के ढेर पर पडा रहता है या फिर किसी नदी नाले पर तैरता रहता है, जानवरों के पेट मे जाता है, नालियों को चोक करता है. हो सकता है यह आज आप को मुसीबत ना दिखाइ दे रही हो पर कल का क्या. यह भले ही शहरी कचरे का मात्र 5% हो पर आगे चलकर हमारे लिये भारी मुसीबत साबित होगा. इस बात को आप लोग तो नही पर आपके शहर के सफाइ कर्मचारी और संवेदनशील नागरिक अच्छे तरह से समझ पा रहे है. सरकारी एजंसियों का पता नही वो कब जागेगी पर हमारे और आपके जागने का समय आ गया है. हमारे द्वारा उठाये गये छोटे छोटे कदम आने वाली भारी मुसीबत से छुटकारा पाने का आसान रास्ता बन सकते है. हम इसकी रिसायकिल प्रक्रिया को समझे और अपने बच्चों को समझाये क्योंकी वो इसके सबसे बढे उपयोगकर्ता है और आगे आने वाले समय मे वो ही इनके भुगतभोगी भी होंगे.
कुछ आसान से उपाय और यह मुसीबत हमारे लिये वरदान बन जायेगी. सबसे पहला कदम इन पैकिंग के प्रकार के अनुसार इन्हे अलग-अलग् कचरे के डिब्बे में डालने की आदत, अभी तक इसे प्लास्टिक या पपैअप्र के साथ मान लिया जाता था जबकी यह अपने आप मे अलग टाइप का कचरा है. इसे दूसरे कचरे के साथ मिक्स ना किया जाये. टेट्रापैक को कचरे के डिब्बे में डालने से पहले इनके कार्नर को सीधा कर इन्हे फ्लेट कर दिया तो ये ज्यादा जगह नही घेरते.
इसी तरह से थर्मोकोल का कचरा बहुत जगह घेरता है, पर यह आसानी से एसीटोन में घुल जाता है, इस तरह थर्मोकोल के बढे बढे टुकडों को आसानी से छोटे से क्यूब मे बदला जा सकता है. जिसे रिसायकिल यूनिट आप से खरीद सकती है.
अकसर बायोमास और प्लास्टिक, पोलीथीन और पैपर  को एक ही डिब्बे मे डाल दिया जाता है जो पूरी तरह गलत है, क्योंकी बाद मे इन्हे अलग करना लगभग असंभव हो जाता है. और अगर यह गंदे हो गये तो इन्हे साफ करने का खर्च अलग. इन्हे सही सलामत साफ सुथरी हालत में रिसायकिल यूनिट तक पहुचा दिया जाये तो इनसे पैपर, पोलीशीट, बोर्ड, बनाये जा सकते है. इसके लिये आप को रिसायकिल यूनिट इसके अच्छी खासी कीमत भी देती है.
इसके लिये अपने शहर मे चल रही रिसायकिल यूनिटों का पता करे. अगर आपके शहर मे रिसायकिल यूनिट नही है तो उसे स्थापित करायें. प्यार, सहयोग, जानकारी, और जुर्माना का उपयोग करते हुये लोगों को जागरूक करे. शुरूआत आप अपने घर से कर सकते है. पह्ले आप सुधरे फिर किसी दूसरे को सुधारने का जिम्मा लें. अगर रिसायकिल यूनिट आपके शहर मे नही हो तो मायूस ना हो इंटरनेट पर घरेलू स्तर पर रिसायकिल की जा सकने वाले ढेरों उपाय के विडियो मोजूद है. एक बार रद्दी पैपर वाले से भी बात करके देखे, मुझे पूरी उम्मीद है की वो इन्हे आप से अच्छी कीमत देकर खरीदेगा. आगर कीमता ना भी दे सका तो उसके चहरे पर अपके इस सहयोग के लिये मुस्कराहट तो होगी ही. 




Tuesday, June 3, 2014

5 जून विश्व पर्यावरण दिवस क्या अहमियत है इसकी?


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विश्व पर्यावरण दिवस, ऐसा दिवस जो दुनिया वालों को याद दिलाता है कि उन्हें इस धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखना है, उसे अधिक बिगड़ने से रोकना है, उसे इस रूप में बनाए रखना है कि आने वाली पीढ़ियां उसमें जी सकें । लेकिन यह दिवस अपने उद्येश्यों में सफल हो भी सकेगा इसमें मुझे शंका है । काश कि मेरी शंका निर्मूल सिद्ध हो! कुछ भी हो, मैं पर्यावरण के प्रति समर्पित विश्व नागरिकों की सफलता की कामना करता हूं । और यह भी कामना करता हूं कि भविष्य की अभी अजन्मी पीढ़ियों को पर्यावरण जनित कष्ट न भुगतने पड़ें।
अभी तक वैश्विक स्तर पर अनेकों दिवसघोषित हो चुके हैं, यथा इंटरनैशनल वाटर डे’ (22 मार्च), ‘इंटरनैशनल अर्थ डे’ (22 अप्रैल), वर्ल्ड नो टोबैको डे’ (31 मई), ‘इंटरनैशनल पाप्युलेशन डे’ (11 जुलाई), ‘वर्ल्ड पॉवर्टी इरैडिकेशन डे’ (17 दिसंबर), ‘इंटरनैशनल एंटीकरप्शन डे’ (9 दिसंबर), आदि । इन सभी दिवसों का मूल उद्येश्य विभिन्न छोटी-बड़ी समस्याओं के प्रति लोगों का ध्यान खींचना, उनके बीच जागरूकता फैलाना, समस्याओं के समाधान के प्रति उनके योगदान की मांग करना है, इत्यादि । परंतु यह साफ-साफ नहीं बताया जाता है कि लोग क्या करें और कैसे करें ।
पर्यावरण शब्द के अर्थ बहुत व्यापक हैं । सड़कों और खुले भूखंडों पर आम जनों के द्वारा फैंके जाने वाले प्लास्टिक थैलियों और कूडे तक ही यह सिमित नहीं है। शहरों में ही नहीं गांवों में भी कांक्रीट जंगलों के रूप में विकसित हो रहे रिहायशी इलाके पर्यावरण को प्रदूषित ही करते हैं। भूगर्भ जल का अमर्यादित दोहन, नदीयों में मिलते शहरी नाले जहर और गंदगी घोल रहे है । हमारे शहरों एवं गांवों में फैली गंदगी का कोई कारगर इंतजाम नहीं है । ध्वनि प्रदूषण भी यदाकदा चर्चा में आता रहता है। जलवायु परिवर्तन को अब इस युग की गंभीरतम समस्या के तौर पर देखा जा रहा है। ऐसी तमाम समस्याओं के प्रति जागरूकता फैलाने की कोशिश की जा रही है एक दिवस मनाकर । क्या जागरूकता की बात सतत चलने वाली प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए ? एक दिन विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये पर्यावरण दिवस मनाना क्या कुछ ऐसा ही नहीं जैसे हम किसी का जन्मदिन मनाते हैं, या कोई तीज-त्योहार ? एक दिन जोरशोर से मुद्दे की चर्चा करो और फिर 364 दिन के लिए उसे भूल जाओ ?
मात्र जागरूकता से क्या होगा ? यह तो बतायें कि किसी को (1) वैयक्तिगत एवं (2) सामुदायिक स्तर पर करना क्या है ? समस्या से लोगों को परिचित कराने के बाद आप उसका समाधान भी सुझायें! कुछ दिन पहले कि बात है, क्रिकेट के एक दिवसिय मेच में प्रायजकों को अर्थ दिवस मनाने का सूझा...उन्होने मुस्कराते हुये क्रिकेटरों से साथ ग्लोब के पास फोटो खिचवाये. कुछ भावनात्मक लफ्फाजी की और फिर फल्ड लाईट में रात्री मेच शुरू ...यही उपभोक्ता वाद है. क्योंकी ऐसा कर खेलने वाला खुश खिलाने वाला खुश और खेल देखने वाला खुश. अगर उन्हे अर्थ दिवस की इतनी ही चिंता होती तो वो उस रात्री मेच के लिये जनता से माफी मांगते हुये उसे रद्द करते और मेच को दिन में कराते,. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. अब आप बतायें ये किसे जागरूक बना रहे थे. 
चलिये आपने सब को जागरूक बना भी दिया तो प्रतिबद्धता एवं समर्पण कहां से लाएंगे ? क्या लोग वह सब करने को तैयार होंगे जिसे वे कर सकते हैं, और जिसे उन्हें करके दिखाना चाहिए ? उत्तर है नहीं । यह मैं अपने अनुभवों के आधार पर कहता हूं । मैं पर्यावरण की गंभीरतम समस्या जलवायु परिवर्तन का मामला एक उदाहरण के तौर पर ले रहा हूं । जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण पाने के लिए हम में से हर किसी को कार्बन उत्सर्जन घटाने में योगदान करना पड़ेगा, जिसका मतलब है कि जीवास्म इंधनों का प्रत्यक्ष तथा परोक्ष उपयोग कम से कम किया जाए । क्या आप कार चलाना बंद करेंगे, अपने घर का एअर-कंडिशनर को बंद करेंगे, कपड़ा धोने की मशीन का इस्तेमाल बंदकर हाथ से कपड़े धोएंगे, अपने विशाल घर में केवल दो-तीन सीएफएलबल्ब जलाकर गुजारा करेंगे, और हवाई सफर करना बंद करेंगे, इत्यादि-इत्यादि ? ये सब साधन जलवायु परिवर्तन की भयावहता को बढ़ाने वाले हैं । जिनके पास सुख-सुविधा के ये साधन हैं वे उन्हें छोड़ने नहीं जा रहे हैं । इसके विपरीत जिनके पास ये नहीं हैं, वे भी कैसे उन्हें जुटायें इस चिंता में पड़े हैं । कितने होंगे जो सामर्थ्य हो फिर भी इन साधनों को स्वेच्छया कहने को तैयार हों ? क्या पर्यावरण दिवस सादगी की यह भावना पैदा कर सकता है ?
वास्तव में पर्यावरण को बचाने का मतलब वैयक्तिक स्तर पर सादगी से जीने की आदत डालना है, जो आधुनिक काल में उपेक्षा की दृष्टि से देखी जाने वाली चीज है। यह दिखावे का युग है, हर व्यक्ति की कोशिश रहती है कि उसके पास अपने परिचित, रिश्तेदार, सहयोगी अथवा पड़ोसी से अधिक सुख-साधन हों । यह मानसिकता स्वयं में ही स्वस्थ पर्यावरण के विपरीत जाती है।
जरा गौर करिए इस तथ्य पर कि पूरे विश्व का आर्थिक तंत्र इस समय भोगवाद पर टिका है । अधिक से अधिक उपभोक्ता सामग्री बाजार में उतारो, लोगों को उत्पादों के प्रति विज्ञापनों द्वारा आकर्षित करो, उन्हें उन उत्पादों का आदी बना डालो, उन उत्पादों को खरीदने के लिए ऋण की व्यवस्था तक कर डालो, कल की संभावित आमदनी भी आज ही खर्च करवा डालो, ये सब आज आधुनिक आर्थिक प्रगति का मंत्र है । हर हाल में जीवन सुखमय बनाना है, भले ही ऐसा करना पर्यावरण को घुन की तरह खा जाए ।
कुछ कार्य लोग अपने स्तर पर अवश्य कर सकते हैं, यदि वे संकल्प लें तो, और कुछ वे मिलकर सामुदायिक स्तर पर कर सकते हैं । किंतु कई कार्य केवल सरकारों के हाथ में होते हैं। पर इस सब से पहले यह तय करना जरूरी है कि उनके लिए आर्थिक विकास पहले है या पर्यावरण ? यह एक मजाक ही है कि एक तरफ पर्यावरण बचाने का संदेश फैलाया जा रहा है, और दूसरी ओर लोगों को अधिकाधिक कारें खरीदने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैं कारको आज के युग के उपभोक्ता साधनों के प्रतिनिधि के रूप में ले रहा हूं । कार से मेरा मतलब उन तमाम चीजों से है जो लोगों को दैहिक सुख प्रदान करती हैं और उन्हें शारीरिक श्रम से मुक्त कर देती हैं । क्या यह सच नहीं है कि बेतहासा बढ़ती हुई कारों की संख्या के कारण सड़कों का चौढ़ीकरण किया जाता है, फ्लाई-ओवरों का निर्माण किया जाता है, भले ही ऐसा करने का मतलब पेड़-पौधों का काटा जाना हो और फलतः पर्यावरण को हानि पहुचाना हो ?
ऐसे अनेकों सवाल मेरे जेहन में उठते हैं । मुझे ऐसा लगता है कि पर्यावरण दिवस मनाना एक औपचारिकता भर है । मुद्दे के प्रति गंभीरता सतही भर है, चाहे बात आम लोगों की हो अथवा सरकारों की, शायद यही कारण है कि हम कुछ लोगों का विकास हर कीमत पर करना चाहते है उसके लिये अगर जंगल बरबाद होते हो तो हो, किसान बरबाद होते है तो हो. खेत बरबाद होते है तो होने दो!
आंकडे इस बात के गवाह है कि विश्व की आबादी के 20% लोग इस ग्रह की 80% प्राकृतिक स्रोतो को खत्म करने के लिये जिम्मेदार है. वो ओरों की चिंता छोड  अपने लिये  जिये जा रहे है. वहीं दूसरी तरफ हाशिये पर खडे 80% अधिसंख्य लोग इन 20% के लिये काम करते हुये  अपनी जिंदगी के लिये जूझ रहे है.  यही वो 20% लोग है जो दूसरों को तो पर्यावरण खतरा,  ग्लोबल वार्मिंग, सूखा, बाढ, उर्जा खत्म, ग्लेशियर खत्म.. तो पानी खत्म शेर खत्म तो जंगल खत्म …. हम खत्म!!!. का पाठ पढाते है और खुद एसी के लिये भी स्टेंडवाय पावर रखते है .
जब कोइ मुझे समझाता है की सडक पर कचरा फेलाना पर्यावरण के लिये नुकासान देह तो मुझे उसकी बात पर हंसी आ जाती है की उसे सडक पर धुंआ उडाता ट्रक दिखाइ नही देता और पोलीथीन का टुकडा दिखाइ देता है. और वो जनाब भी, जिसने  पोलीथीन सडक छोडा था उस पर भीरी जुर्माने की दुहाइ देते हुये कार मैं ए. सी. आन कर चल देता है. शायद यह भौतिकतावाद से उपजी नई संस्कृति है जो इस बात पर जोर देती है जब तक कानून ना हो तब तक उस अमल ना करो चाहे उसे करना कितना ही जरूरी हो, और जब कानून बना दिया जाये तो उससे बचने के बारे मे पहले सोचो, और जब बचने का कोइ रास्ता ना हो तो सिर्फ कानून से बचने के लिये जितना जरूरी हो उतना भर कर दो.
इस सब के वाबजूद 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाना है और उन जाने-अनजाने लोगों को याद कर उन्हे प्रोत्साहित करना है जो भले ही छोटा हो पर पर्यावरण बचाने के लिये गंभीर प्रयास कर रहे है. उस पर बात करना जरूरी है, क्योंकी बाकी के 364 दिन हम दूसरे कामों में अति व्यस्त जो है. कम से कम यह हमे बताता है की हम किस तेजी के साथ जैवीय संकट पैदा कर रहे है. इस लेख को लिखकर मैं अपने को अपराधमुक्त महसूस नहीं कर रहा हू...बल्कि अपराध बोध का अनुभव कर रहा हू...क्या जाने शायद यही अपराध बोध पर्यावरण संरक्षण के लिये कुछ ठोस करने को प्रेरित करे.




गिद्ध् भोज के after affects




जैसे-जैसे 5 जून नजदीक आ रहा है मेरे अदंर का पर्यावरण समर्थक नागरिक जोर मारने लगा है, इसके कारण मेरे आस पास होने वाली पर्यावरण विरोधी गतिविधीयों पर आजकल कुछ ज्यादा ही नजरे इनायत होने लगी है. अब देखो कल की ही बात है, मैं एक शादी मै गया था. मेजबान ने भव्य आयोजन किया था. उससे भी ज्यादा भोजन शानदार था पच्चीस से ज्यादा स्टाल लगे थे चाट से लेकर मटन कबाब तक, इडली से लेकर नूडल्स और आइसक्रीम से लेकर काफी तक सब मोजूद था.  हजार से ज्यादा लोग खाने के लिये जुटे थे. सब कुछ शानदार था फिर मेरा मन क्यों खट्टा हो गया एसा क्या देख लिया था उसने?
समारोह मे खाने की प्लेट और चम्म्च बोन चाइना की थी जो सेंट्रल टेबल पर सलाद के साथ करीने से सजी थी. पर उसके साथ स्टालों पर डिस्पोजेबल प्लास्टिक कप, प्लेट और  चम्मच का भरपूर उपयोग हो रहा था दो स्टालों पर थर्मोकोल के कप और प्लेट मे चाट और सूप सर्व किया जा रहा था. मैदान मे ड्स्टबिन रखे थे और लोग उसमे खाने के बाद बचे हुये खाने के साथ इन कप प्लेटों को डालते जा रहे थे और जेसे ही वो भरता केटरिग का आदमी तुरंत उसे वहां से उठाकर ले जाता और उसकी जगह  खाली कंटेनर रख देता. एक नजर मे देखने मे सब कुछ ठीक था, शानदार था लोग खाने का लुत्फ ले रहे थे...
पर मेरा नामुराद मन इतने से कंहा मानने वाला था. मै केटरिंग के आदमी के पीछे गया जिसने भरा हुआ कंटेनर उठा रखा था की देखें वो इसका करता क्या है. जो देखा उससे मेरा दिमाग चकरा गया पंडाल के पीछे उसने दो बच्चे बैठा रखे थे उन्होने भरे हुये कंटेनर से बोन चाइना की प्लेट और चम्मचे अलग की उन्हे अच्छी तरह से धोया और उसके बाद उस कंटेनर को दोनों ने मिलकर कूडे के ढेर पर खाली कर दिया.
उस कूडे के ढेर पर बचे हुये खाने से सरोबार प्लास्टिक, थर्मोकोल और पैपर प्लेट और गिलासों का अम्बार था और उसके आसपास कुत्ते और गायें जो खा कम और लड ज्यादा रहे थे. देखकर मुझे उल्टी आने को हुइ और मे वंहा से हट गया. अब मेरा मन इस शादी मे नही लग रहा था. बेमन से मेने अपने होस्ट को खाने के लिये धन्यवाद दिया और वर वधू को आशीर्वाद देकर घर वापस आ गया.
पर्यावरण समर्थक मन ने मुझे देर रात तक सोने नही दिया. क्योंकी मुझे मालुम है की इस छोटे से ढेर को कल सुबह एक बढे ढेर पर नगर निगम का आदमी फेंक देगा अगर उसने नही फेंका तो कुछ दिन बाद यह सडक पर उडते हुये नजर आयेगे या फिर किसी नदी नाले को को चोक कर रहे होंगे. इसी तरह तो हो रही है इस शहर की सफाइ... क्या इससे बेहतर नही हो सकता. वो दोनों बच्चे जो उस कंटेनर से बोन चाइना के प्लेट और चम्मच निकाल रहे थे और अगर वो उन्हे निकाल सकते थे, उन्हे धो और पोंछ सकते थे तो उन्होने प्लास्टिक और थर्मोकोल के साथ एसा क्यों नही किया.
जबाब आसान था. बोन चाइना की प्लेट और चम्मच मंहगी थी इस लिये उसे तो दुबारा इस्तेमाल के लिये बचाना था और बाकी सब उनके लिये कचरा था. हम सब को मालुम है की यही कचरा हमारे लिये खतरा बन गया है तो क्यों ना हम इनके इस्तेमाल पर एसे समारोह पर रोक लगा दें.
शायद इस शहर के लिये यह सभंव ना हो पर मेने आज यह प्रण ले लिया है की मै एसे समारोह मै प्लास्टिक और थेर्मोकोल से बने हुये कप प्लेट और चम्मच का इस्तेमाल तब तक नही करूगा जब तक मुझे यह विश्वास ना हो जाये की आयोजक इस्तेमाल के बाद उसका निस्पादन  सही ढंग से करेगें यानी की उसे रिसायकिल यूनिट तक सही सलामत  भेज देंगे. इस लेख के द्वारा मे आप सब से भी विनम्र आग्र्ह करूगा की आप लोग भी एसा ही करे. अपने दोस्तों और घरवालों को एसा करने को कहे. वेसे भी एसे समारोह मे डिस्पोजेबल का प्रयोग बंद होना चाहिये. नगर निगम एसे कचरे के लिये आयोजक पर जबरदस्त फाइन लगाये. जिससे एसा कचरा पैदा ही ना हो. 
इन समारोह में स्टील और बोन चाइना से बने कप प्लेटों और गिलास की ही इस्तेमाल करे और अगर एसा संभव ना हो तो उपवास का बहाना बना कर उस का विनम्रता से बहिष्कार कर दें. इस तरह कम से कम मेरी तरह उस अपराध बोध से तो बचेगें जिसने मुझे देर रात इस लेख को लिखने के लिये मजोअबूर कर दिया है. या फिर पत्तों से बनी दोना पत्तल क्या बुरी है. प्लास्टिक और थर्मोकोल से बनी कप प्लेटों और गिलास का इस्तेमाल तभी अच्छा है जब इन्हे रिसायकिल किया जा सके. ह्म सब यह अच्छी तरह समझ लें की यह अपने आप रिसायकिल नही होती इन्हे रिसायकिल करना पडता है और इसके लिये इन्हे रिसायकिल प्लांट तक भेजना पडता है, इसलिये अगर आप इन्हे रिसायकिल प्लांट तक भेजना सुनिश्चित नही कर सकते तो  इनके उपयोग से बचे.
जो लोग मान बैठे है कि इस कचरे से उनका क्या लेना देना, अगर समय पर सही कदम नही उठाये गये तो अनके लिये वो दिन दूर नही जब कचरा उनके घर के दरवाजे पर सडेगा और जिस जगह से वो निकलेगें सडी बदबू. उससे फेलती बिमारी. ना ना ...यह बद दुआ नही है ...भविष्य का सच है. अरे! क्या आपको यह सब अपने शहर मे दिखाइ नही दे रहा. अगर नही दिखाइ दे रहा तो कार के सीसे नीचे किजिये और अपने आसपास गोर से देखिये. हो सकता है की यह सब आपके घर से थोडी दूर पर हो रहा हो ...उसे आपके घर पर पहुचने में अब कितना समय लगेगा. एक बात अच्छी तरह से समझ लिजिये, यह मुसीबत हमने ही पैदा की है और इसका इलाज भी हमे ही करना है. अगर बडा कदम नही उठा सकते तो कम से कम छोटे-छोटे कदमों से शुरूआत करें और अपने आस पास के लोगों के लिये एक जिंदा मिसाल कायम करें.
यूथ हस्टल एशोसियेशन का मेंम्बर हू.  वो जब भी ट्रेकिंग कराते है तो उनमे शामिल होने वाले मेंम्बर को साथ में अपनी-अपनी  प्लेट और गिलास लाने का नियम सख्ती से पालन कराते है. एक छोटा से नियम पर गजब की ताकत है इस नियम में. वो लोग कितने टन कचरे को फेलाने के अपराध  से बच जाते है. हमसे अच्छे तो जेल के कैदी है जो खाने के बाद अपने कप और प्लेट को खुद साफ करते है जिससे वो दुबारा उन्हे इस्तेमाल कर सके. हमारे गांधी बाबा भी हमसे कुछ एसा ही करने हिदायत दे गये थे. काश हम इन समारोह मे भी कुछ एसा कर पाते. मुझे याद है पहले एसा ही होता था. पर जाने केसे हमारी इस अच्छी परपंरा को किसी की बुरी नजर लग गई. प्लास्टिक के कप प्लेटों में खाकर अपने को साहब समझने लगे. पर्यावरण तो एक व्यापक शब्द है, मुझे तो फिलहाल अपने आस पास सफाइ रहे इसकी फिक्र है पर इसका मतलब यह नही है की मै अपना कचरा कीसी दूसरे की जगह पर फेंक दू.
बायोमास वाला कचरा तो गुजरते समय के साथ अपने आप कुछ दिन मे सड-गल कर जमीन और हवा में मिल जाता है, पर प्लास्टिक, थर्मोमोकोल एल्यूमिनियमऔर् पोलीथीन से बने  टेट्रापैक, ग्लास, कप, प्लेट और थेलियां सालों साल तक जेसी है वेसा ही बने रहती है और जो बरबादी का नाजारा पेश करता है, उसकी कुछ पिक्चर मै नीचे दे रहा हू. इसलिये इसे अगर सही तरीके से रिसायकिल ना किया जाये तो हमारे लिये अभिषाप बन जाता है.
...अरे अपने शहर को साफ रखने मुहिम से नाता तो जोडिये, शुरू तो किजिये फिर देखना आपके अपने दिमाग से कितने आइडिया निकलते है.आज कुछ ज्यादा तो नही हो गया....!!

चलो अब मुझे भी नींद आ रही है बाकी अगले ब्लाग में फिर कभी