Sunday, February 20, 2011

मेगा वाट से वाट की ओर

जब भी हम गैर पारंपरिक ऊर्जा से बिजली बनाने की बात करते है तो लागत और उच्च दक्षता की बात करते है और हम उसकी तुलना सरकार -द्वारा बनाए गए बङेबङे बिजली बोर्डों से मिलने वाली सस्ती बिजली से करने लगते है। देखने के लिए भले ही हमें ये सस्ती बिजली दे रहें है पर खुद हज़ारों करोङ के घाटे में डूबते जा रहे है। वैसे भी यह सस्ती बिजली हमें सरकारी सब्सीडी के बाद मिलती है। सरकार यह घाटा या तो ज़्यादा टैक्स लगाकर वसूल करती है या फिर ज़्यादा नोट छापकर, दोनों ही स्थति में उसका बोझ आम उपभोक्ता पर ही जाएगा। अब तो घाटा कम करने का एक और आसान इलाज मिल गया है। बिजली घरों, को ओनेपौने दाम पर बेच दो।

विद्युत को बनाने और वितरण करने के लिए 3 फ़ेज 50 हर्ट्ज - सिस्टम का जन्म हुआ। बङेबङे पॉवर हाउसों से बिजली सेकङों किलोमीटर तारों के द्वारा , अनेक ट्रासंफार्मरों से परिवर्तित होकर यह आम उपभोक्ता तक पहुँचती है। यह तरीक़ा अब तक तो ठीक था, पर अब इसकी ख़ामियाँ उजागर होने लगी है। जनरेशन, ट्रासमीशन और वितरण का यह नेट वर्क एक बहुत बङी सिनक्रोनस मशीन की तरह काम करता है। जितना बङा नेट वर्क उतना ही बङा ख़तरा उसके अस्थिर होने का बना रहता है। नेट वर्क फेल होने का डर हमेशा बना रहता है। इसके फेल होने से सारी व्यवस्था चरमरा जाती है।

जनरेशन, ट्रासमीशन और वितरण का यह कापलेक्स सिस्टम सरकारी और ग़ैरसरकारी एजंसियों की मनमर्जी के पर चल रहा है। सोचा गया था कि बङे पॉवर हाउस अपने साथ उच्च तकनीक और अच्छा प्रबंधन लेकर आएगें जिससे आम व्यक्ति को एक सस्ती और भरोसे मंद विधुत व्यवस्था मिलेगी। आज बङी परियोजनाएँ चाहे वो थर्मल हो, हाइड्रो हो या न्यूक्लियर, अपने साथ पर्यावरण तथा विस्थापन जैसी गंभीर समस्याएँ साथ लेकर आती है। कुप्रबंधन और धन की कमी के कारण बङी परियोजनाएँ महगी भी साबित हो रही है। पॉवर हाउसों की टरबाईनों और जनेरेटरो की दक्षता हमने भले ही उच्च स्तर की प्राप्त कर ली है पर ओसत वार्षिक उत्पादन 50% से 60% होने के कारण यह अपनी पूरी जिदंगी खराब दक्षता से चलने वाली साबित होती है।

हमारे देश में ओसत ट्रासमिशन बरबादी क़रीब 22 प्रतिशत है। इसलिए प्लांट चाहे पनी उच्च दक्षता पर चलता हो पर उपभोक्ता तक उसका सर आते आते यह सबसे खऱाब दक्षता वाले साबित होते है। इस व्यवस्था का विकल्प डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर सिस्टम हो सकता है। संसार की सभी पॉवर कम्पनियाँ डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर सिस्टम पर काम कर रही है। ब मेनटींनेंस फ्र.ी जनरेटर और उच्च दक्षता के माइक्रो टर्बाइन ौर फ्यूल सेल, सोलर सेल, वायु ऊर्जा के कारण यह सस्ता विकल्प बनकर उभर रहा है। इसमें लगने वाला कम समय और कम पूँजी के कारण यह लोकप्रिय भी हो रही है। आने वाले 10 से 15 सालों में जब पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की कमी हो जाएगी तब हमें गैरपारंपरिक ऊर्जा से मिलने वाली बिजली पर निर्भर होना होगा।

अब सरकार के केले के बस की बात नहीं है कि वो पने दम पर सभी को बिजली सुनिश्चचित करा सके। हम सिर्फ़ गिनीचुनी कुछ बाङी परियोजना के के बल पर आने वाले समय में बिजली की कमी को पूरा नहीं कर सकते। बङे प्रोजेक्ट चाहे वो सरकारी हो या ग़ैरसरकारी, सस्ती बिजली की गांरटी नहीं है। इसलिए अब हमें मेगावॉट की बात ना कर किलोवाट और वॉट की बात करनी होगी। जिससे आम जनता की सीधी भागीदारी को बढ़ाया जा सके। उनके -द्वारा इस्तमाल की जाने वाली बिजली को बनाने और ख़र्च करने का नियंत्रण उनके पास होना चाहिए, ना कि सेकङो मील दूर बने बिजली घरों और कंट्रोल केंद्रों को। डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर जनरेशन में ऊर्जा स्रोत उपभोक्ता के नज़दीक होने के कारण ट्रासमिंशन में ऊर्जा की बरबादी कम होती है, उपभोक्ता इसे अपनी ज़रूरत के हिसाब से सचांलित कर सकता है।

हमें ऐसे सभी विकल्पों पर ध्यान देना होगा जिसे लोग आसानी से लगा और चला सके। अब उन्हें कम से कम अपने लिए बिजली खुद बनानी सीखनी होगी। तकनीकी तौर पर यह सभंव है, सरकार को  नियमों और पॉलसी में सुधार लाकर इन छोटेछोटे बिजली सयंत्रों को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसे में गैरपारंपरिक ऊर्जा स्रोत  मुख्य भूमिका निभा सकते है। ख़ासकर सौर ऊर्जा और हवा ऐसा विकल्प बनकर उभरे है जो वातावरण को प्रदूषित किए बिना सस्ती बिजली उपलब्ध करा सकते है। इन उपकरणों का रखरखाव भी आसान है।

गैर पारंपरिक ऊर्जा स्र्तों से शहरों में बिजली शुरूआती तौर पर मँहगी ज़रूर हो सकती है पर इससे दूरदराज गाँवों में बिजली निश्चचित तौर पर सस्ती पङेगी और फिर सवाल मँहगी और सस्ती से बढ़कर उसकी उपलब्धता का है। गाँव की बात तो दूर आज हम शहरों को भी बिजली नहीं दे पा रहे है। चार से छः घंटे की बिजली कटौती आम बात है। जहाँ तक गाँवों की बात है, सिर्फ़ तार बिछाने से बिजली तो नहीं मिल जाती। ऐसे कितने गाँवों है जहाँ हम 24 घंटे बिजली दे पा रहे है। शायद एक भी नहीं है, अगर होता तो गीनीज बुक में उसका नाम आ जाता।

डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर जनरेशन सिस्टम की शुरुआत हम ऐसे गाँवों से कर सकते है जहाँ बिजली  नहीं पँहुची है। आज भी गाँवों में रात को रोशनी करने के लिए सरसों के तेल का दिया या फिर मिट्‌टी के तेल का लैंप या लालटेंन इस्तेमाल करते है । इसकी कमज़ोर रोशनी में पढ़ाई लिखाई का काम कितना कष्टप्रद है वो इसको इस्तेमाल करने वाले ही समझ सकते है। समय पर बिजली ना मिलने से फसलों की सिंचाई नहीं हो पाती और किसान की अच्छी भली खेती बरबाद हो जाती है। किसान मजबूरी में डीजल पम्प का उपयोग करता है। इसमें आने वाला ख़र्च निश्च्चित तौर पर गैर पारंपरिक ऊर्जा से मिलने वाली बिजली से ज़्यादा पङेगा। आज का गाँव वासी इसको समझ पा रहा है। कमी है तो उन्हें सही तकनीक समझाने की और उनके लिए कम ब्याज पर पूँजी की व्यवस्था करने की । गैर पारंपरिक ऊर्जा के क्षेत्र में सरकारी एवं ग़ैरसरकारी एजंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है जो उनकी ज़रूरतों को सझकर उन्हें सही राय दे सकें।



1 comment:

  1. एक रिर्पोट के अनुसार ऊर्जा आपूर्ति करने के लिए प्रकृति के सीमित संसाधन जैसे कोयला, कच्चा तेल इत्यादि का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है, जिसके चलते अगले 40 वर्षों में इन संसाधनों के खत्म हो जाने की संभावना है. अगर कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों के कुल सकल आयात के आंकड़ों पर नज़र दौड़ाया जाए तो हम पाते है कि वर्ष 2009-10, 2008-09 में क्रमशः 4,18,475 करोड़, 4,22,105 करोड़ था जबकि इसकी तुलना में निर्यात क्रमशः 1,44,037 करोड़, 1,21,086 करोड़ था. आकड़ों से पता चलता है कि आयात और निर्यात के बीच का इतना बड़ा अंतर भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला करने वाले हैं.
    अत: इसे कम करने की ज़रुरत है, जिसे केवल अक्षय ऊर्जा के उपयोग से ही किया जा सकता है. अक्सर समझा जाता है कि अक्षय ऊर्जा तकनीक अपरिपक्व व अविश्वसनीय हैं और बड़े पैमाने पर प्रयोग किये जाने पर लागत संबंधी लाभ प्रदान करने में ये पीछे रहती हैं. जबकि इसे पूरी तरह से गलत तरीके से पेश किया गया है.
    एक अनुमान के अनुसार बिहार जो देश में ऊर्जा के मामलें में अतिपिछड़ा है, यहां के 19,000 ऐसे गांव है, जहां पर अभी तक बिजली नहीं पहुंची. जिसके चलते इन गांवो का भविष्य अंधकारमय बना हुआ है. भारत के अधिकतर पिछड़े गांवों की स्थिति कमोबेश बिहार की ही तरह है,
    वर्तमान में भारत का ऊर्जा क्षेत्र करीब 24 लाख रोजगार प्रदान करता है, जिसमें अक्षय उर्जा उद्योग की हिस्सेदारी 44 प्रतिशत है. लेकिन अक्षय ऊर्जा को बड़े पैमाने पर स्थापित किया जाये तो वर्ष 2015 तक 14 लाख नौकरियां सृजित की जा सकती है, जो कोयला उद्योग के 5 लाख के रोजगार से कहीं ज्यादा है.
    अक्षय ऊर्जा में वे संभावनाएं हैं, जिससे पूरी दुनिया के साथ-साथ खासकर भारत के ऊर्जा बाजार को बदला जा सकता है. वैश्विक हलकों में क्लीन टेक्नोलॉजी उद्योग को अगला हाइटेक रिवोल्यूशन माना जा रहा है. अभी भारतीय ऊर्जा क्षेत्र करीब 24 लाख नौकरियां प्रदान कर रहा है, जिसमें अक्षय ऊर्जा उद्योग की हिस्सेदारी 44 फीसदी है.
    हालांकि साल 2020 तक नौकरियों की संख्या कमोबेश यही रहे, लेकिन एक बड़ा बदलाव यह होगा कि अक्षय ऊर्जा इसमें प्रभावकारी भूमिका निभायेगा और रोजगार में उसकी भागीदारी 74 फीसदी तक हो जायेगी. इसके साथ-साथ कोयला व जीवाश्म ईंधनों से पैदा सामाजिक संघर्ष, विस्थापन व वातारणीय दुष्प्रभाव आदि संकटों को रोकने की दिशा में भी अक्षय ऊर्जा से ही मदद मिलेगा.
    स्पष्ट है कि भारतवर्ष में अक्षय ऊर्जा के कई फायदे हैं. जरुरत है सुदृढ़ नीतियों द्वारा इनको अपना कर ऊर्जा प्राप्त करने की, जिससे देश का आर्थिक, सामाजिक, एंव पर्यावरणीय विकास संभव हो सके.

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