

हमारी भूमी, जल और वायु खतरनाक तरीक से प्रदूषित हो गई उसके
विनाशकारी नतीजे लगातार सामने आने के बावजूद आत्मघाती राह पर हम लगतार उसे आगे बढ़
रहा है तो उसके दो कारण हैं। एक तो इनको आगे आगे बढ़ाने में साम्राज्यवादी देशों,
कंपनियों, नेताओं, अफसरों
व तकनीकशाहों के नीहित स्वार्थ हैं। मानव समाज का हित और भविष्य इनके मुनाफों,
कानूनी-गैरकानूनी कमाई और अहंकार के सामने बौने पड़ जाते हैं।

यह सही है की हमें बिजली चाहिए, कोयला,
प्राकृतिक गैस, डीजल, नेप्था,
परमाणु उर्जा या बड़े बांध - किसी से भी बिजली बनाएं तो समस्याएं
पैदा होती हैं और फिर उनका विरोध होने लगता है। यह बिल्कुल सही है। इसका जवाब दो
हिस्सों में है। एक तो यह कि उर्जा के अन्य सुरक्षित वैकल्पिक स्त्रोतों का विकास
करना है। और समय के मानदंड पर जो उर्जा तकनीके खरी उतरी हो उन्हे बढावा देना
है. अभी तक साम्राज्यवादी देशों को पूरी दुनिया से कोयला, तेल,
गैस व अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने तथा प्रदूषण एवं
पर्यावरण-विनाश करने की सुविधा इतनी आसानी से मिलती रही कि वैकल्पिक उर्जा के
विकास व अनुसंधान पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
हमारा देश भी उन्हीं की नकल कर कोयला, प्राकृतिक
गैस, डीजल, नेप्था, परमाणु उर्जा या बड़े बांध से आगे नही सोच पाया। बहुत देर बाद हमने सौर
उर्जा जेसे विकल्पों के प्रति थोडी गंभीरता दिखानी शुरू की है. आज भी
हम मांग के अनरूप सोर उर्जा सेलों के बनाने के लिये आधारभूत उद्योग नही लगा पाये.
यह तरक्की भी चीन से आयातित निम्न दर्जे के सेलों के सहारे पर टिकी
हुई है. इस तकनीक में जन भागेदारी अब भी सरकारी आंकडो क खेल बन रही है.
यदि बिजली पैदा करने में इतनी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, तो इसके अंधाधुंध उपयोग को भी नियंत्रित करना होगा। खास तौर पर बिजली व
उर्जा के विलासितापूर्ण उपयोग व फिजूलखर्च पर बंदिशें लगानी पड़ेगी। इसके लिए
आधुनिक जीवन शैली और भोगवाद को भी छोड़ने की तैयारी करनी होगी।
आधुनिक टकनॉलॉजी, आधुनिक जीवनशैली, उपभोक्ता संस्कृति, कार्पोरेट मुनाफे, वैश्विक गैर बराबरी, साम्राज्यवाद, पर्यावरण संकट - इन सबका आपस में गहरा संबंध है और ये मिलकर आधुनिक
औद्योगिक सभ्यता को परिभाषित करते हैं,
इनके विकल्पों पर
आधारित एक नई सभ्यता के निर्माण से ही मानव और उसकी मानवता को बचाया जा सकता है
तथा एक बेहतर व सुंदर दुनिया को गढ़ा जा सकता है। अभी तो फिलहाल पर्यावर्ण के नाम पर कुछ स्लोगन बनाना. लेख लिखना, और बहुत हुआ तो कुछ पोधों को रोप देना भर है. जेसे हम इस को मनाकर
प्राकृति पर कोइ बहुत बढा अहसान कर रहे है.
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