Wednesday, January 27, 2016

प्रश्न भी आप हो उनका उत्तर भी आप ही हो

जो कुछ में कहने की गुस्ताखी कर रहा हू. वो मेरा अधिकारिक क्षेत्र नही है, न ही मेरा कोइ ओफिसियल गुरू है जिसके नाम पर मे यह लेख समर्पित कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाउ. ना ही मेरे पास एसी कोइ सिद्धी या चमत्कार है जिससे मे आप सब को अचंभित कर दू और उसकी आड लेकर कुछ भी ऊल-जलूल बोलू और आप उसे परम सत्य मानकर ग्रहण करने को मजबूर हो जाये. नाही मे यह मानने के लिये आपको मजबूर कर रहा हू की मेरा कहा कथन ही सत्य है. जो कुछ भी मे कहने जा रहा हू उसके पीछे किसी की भावनाओं को आहत करने की मंशा नही है. यह तो एक मंथन है जो लगातार चलता रहता है. जो कुछ भी मेरे चारो तरफ हो रहा है उसे लाजिक और अनुभव की कसोटी पर कसते हुये उसे समझने की कोशिश है.
इश्वर है इसके  बारे मे कोइ दो राय नही है उसके किये चमत्कारों से यह दुनिया भरी पडी है. मै समझना चाहता हू की वो हमारे जीवन को केसे संचालित और प्रभावित कर रहा है इसे समझना चाहता हू. क्या वो नास्तिक और आस्तिक मे फर्क करता है. विरोधाभासों पर टिकी इस दुनिया मे उसके हिसाब से क्या गलत और क्या सही है एसा क्या है जिसे करने से वो नाराज होता है या खुश होता है. क्या सच मे मानव उसकी सर्वोत्तम कृति है जिसे वो हर हाल मे बचाये और बनाये रखेगा. 
इश्वर के बारे मे आजकल इंटरनेट, टीवी, अखबार और किताबों के जरिये इतनी विरोधाभासी विचारों से घिर गया हू की मुझे समझ नही आता की कोन सा विचार सही है और कोन सा गलत. कोइ भी धर्म इसमे मेरी किसी भी तरह को कोई भी साहयता नही कर पा रहा है क्योंकी मेने देखा विश्व के सारे धर्म रिती रिवाजों का पुलिंदा भर रह गये है. जो एक दूसरे के बांतों को काटते हुये नजर आते है. एसे मे सच को केसे जाना जाये.
सोचा किसी गुरू की शरण मे जाया जाये. उसके लिये बहुत से गुरूओं को जाना, बडे दुख के साथ कहना पड रहा है की वो मुझे मदारी से ज्यादा नही लगे. एक एसा मदारी जो लच्छेदार बांतो से लोगों को लुभाता है और हाथ की सफाइ दिखाकर लोगों का मंनोरंजन करता है और अपना धंधा चमकाता है. एसे गुरू बांते बहुत बडी बडी करते है पर जब उनकी खुद की जिंदगी मे झाकों ..... आजकल एसे गुरूओं की भरमार है जो भक्तों को तो बताते है की दुनिया एक माया है और उससे बचे रहने की सलाह देते है. उनके खुद के क्रियाकलाप बताते है की वो खुद इस माया मे किस तरह डूबकर उसका आनंद ले रहे है. किस तरह मठाधीश बनने के लिये राजनिती खेलते है और एक दूसरे को नीचा देखाने मे कोइ कोर कसर नही छोडते.
चलो किसी सच्चे गुरू को खोज भी लिया तो उस गुरू के प्रति श्रद्धा कब अंधश्रद्धा मे बदल जायेगी मुझे पता ही नही चलेगा क्योंकी सभी धर्म और उनके गुरू अपने शिष्यों मे पहले तो श्रद्धा जगाने के लिये अच्छी बांतो से शुरूआत करते हुये मानव धर्म की बांते करते है. उनके शिष्य कब मानव धर्म छोडकर दानव बन जाते है पता ही नही चलता क्योंकी आज तक मुझे एसा कोई धर्म और संप्रदाय नही मिला जो कभी खून के प्यासा नही हुआ जिसने हर हालत मे अपना धर्म बनाये रखा. हां कुछ लोग हर संप्रदाय और धर्म मे मिल जायेगे जिन्होने हर हाल मे मानव धर्म बनाये रखा. मुझे नही लगता एसा उन्होने धर्म के कारण किया होगा , सच तो यह है यह सब कुछ करने की प्ररेणा उन्हे धर्म से परे जाकर मिली.
 बहुत कुछ अनजाना है. पर इसके लिये मुझे खुद ही अपने ज्ञान और अनुभव का मंथन करना होगा क्योंकी इस मंथन से ही अमृत रूपी सच निकल सकेगा, एसा सच जिसे कोइ गुरू मुझे नही बता सकता. इन्ही सब के जबाब के लिये मे इस लेख को लिख रहा हू. क्योंकी जब भी मे लिखता हू इस मंथन की प्रक्रिया को अपने अदंर पाता हू, हर बार मुझे मंथन मे कुछ ना कुछ नया मिला है , अनोखा मिला है , विस्मय कारी मिला है देखे इस बार क्या मिलता है. सभी होनहारों ने कहा है की अगर इश्वर को समझना है तो अपने अदंर उतरते चले जाओ. अदंर मोजूद सभी धारणाओं विश्वासों और मान्यताओं का एसिड टेस्ट करो, क्या इसी को मंथन नही कहते? इस बार का समुद्रमंथन गहरा होगा.
आज विज्ञान इतनी तेजी से प्रगति कर रहा है की धर्म उसके साथ नही चल पा रहा है. जिस तेजी से विज्ञान ने अपने को बदला है अपनी गलतियों से सीखा है उतनी तेजी से हम अपने धर्म और कर्म को नही बदल पाये. जिस तेजी से आज के युग मे हमारे रहन सहन को बदलने का दबाब है हम उतनी तेजी से ना तो अपने शरीर मे बदलाव कर पाये ना ही अपने रहन सहन और खान पान को. देखा जाये तो उद्योगिक क्रांती और उसके बाद के दो महायुद्धों ने विश्व को तेजी से बदला. सूचना, परिवहन और शिक्षा ने लोगों को रहन सहन और सोच मे भारी बदलाब किया है.
जिस धर्म को हम सनातन समझ कर उसकी हर बात पर आंखे मूंदे विश्वास करते रहे, उसमे अब हमे बहुत सारी खामिया नजर आती है. उसके बाबजूद उसमे फेर बदल करने की किसी भी धर्म ने कोइ गंभीर कोशिश नही की है. इन सब मे घोर अंधविश्वस पर आधारित रितीरिवाजों का बोला बाला है. पर जबभी बहस करो तो वो दूसरे धर्म की खराबियों का बखान करने लगते है। मेन जाने माने धर्म गुरुओं को कुत्तो की तरह टीवी डिबेट पर लड़ते हुये देखा है।  
दूसरी तरफ विज्ञान की मदद से विकास के नशे मे हम नित नई मुसीबत खडी करते जा रहे है. असल में हम समझ बेठे है की हम इंसान इश्वर की सबसे बेहतर और अनूठी रचना है. और वो हमे हर हाल में और हर कीमत पर बनाये रखेगा. जो सच नही है. मेरा मानना है की उसने बनाया हमे जरूर पर उसे बनाये रखने की जिम्मेदारी हमारी अपनी है क्योंकी उसके नियम सब के लिये बराबर है. अब उसी के द्वार रचित प्राकृति को ही देखे क्या वो  इंसान और हेवान मे फर्क करती है ..चाहे वो बाल्तकारी , चोर , डाकू हो या फिर साधू सन्यासी सब के लिये उसके नियम बराबर है.
 उसकी इस विशाल सृष्टी में हमारी औकात बहुत तुच्छ है. और जिस पृथ्वी के हम वासी है वो दूसरे सितारे से दिखाइ भी नहीं देती. अब यह बताओ की हम में ऐसा क्या है की वो हमारे लिये विशेष रियायत देते हुये हमारी बेवकूफियों के बाबजूद हमे बचाये रखेगा.
आज का आधुनिक विकास जिस विज्ञान की देन है उसी ने हमे विनाश के आधुनिक हथियार भी थमा दिये. लालच से वशीभूत हम अपने पर्यावरण को तेजी से नष्ट कर रहे है. हमारे इस लालच ने एक बार फिर सारी मानव जाति को संकट मे डाल दिया है. आज हम मे से कोइ भी यह दावा नही कर पायेगा की अगले 100 साल बाद भी हमारी नस्ल इसी तरह इस पृथ्वी पर वास कर रही होगी. एसी हालत मे एक बार फिर मूल सवाल हमारे सामने है की हमारे होने की वजह क्या है. इंसान होने का मतलब क्या है. इंसान के रूप में हमारी क्या जिम्मेदारी है. हमारी क्या सीमायें है. इस सब के बीच धर्म की क्या भूमिका है. वरना इतिहास गवाह है यहा सभ्यताए कब कब गायब हो जाती है, आने वाली नई सभयता को इसका पता भी नही चलता। एक बार फिर हम उन्ही गलतियपो को करने के लिए अभिशीप्त हो जाते है। 
अगर सच ने सभी धर्म मानव को सही रास्ता दिखाने के लिये है तो फिर इनमे आपस मे मन मुटाव क्यों ...क्यों वो मानव जाति के संहारक बन जाते है. क्यों नही उनके समझदार अनुयायी धार्मिक दंगों के समय अपने विरोधी धर्म के लोगों का खून करते हुये यह नही देखते की वो एक अच्छा इंसान है या बुरा. क्यों वो उस समय खून के प्यासे दानव बन जाते है
मेरे जीवन मे इश्वर का रोल क्या है. प्राकृतिक नियमों की तरह उसके और कोन से नियम है जिन्हे समझकर मे अपना जीवन संवार सकता हू. कोन से एसे डर, विशवास और धारणाये है जो मेरी प्रगति मे बाधक है. इस संसार मे मेरी भूमिका क्या है. मुझे किस दिशा मे बढना चाहिये. एसी कोन सी मान्यताये और विश्वास है जिन्हे मुझे तुरंत अपने मन से जड से उखाड फेंकना चाहिये. इन सब सवालों के जबाब के लिये जब भी मे अपने आस पास मोजूद धर्म और उनके अनुयायीयों को देखता हू तो घोर निराशा होती है.
मुझे मालुम है किसी गुरू का शिष्य बनकर उसके साये मे पलना इससे कंही ज्यादा आसान है. इससे उस गुरू की कृपा तो मे पा जाउगा और उस सच को भी शायद जान जाउ जो गुरू ने जाना है. सच मानो जो गुरू ने जाना है वो पूर्ण सत्य नही हो सकता क्योंकी अगर वो पूर्ण सत्य होता तो उसके लाखों शिष्य भी गुरू तुल्य बन गये होते, ना की अंधभक्त चेले.
भौतिक जगत विरोधाभास से भरा हुआ है. अच्छी तरह समझ ले की अच्छा-बुरा, स्वर्ग-नर्क, प्यार-नफरत, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सुख-दुख, रात-दिन, दोस्त-दुश्मन एक के बिना दूसरे का आस्तित्व नहीं है. विरोधाभास इस भौतिक जगत की एसी सच्चाइ है जो हर हाल मे हर काल मे हर जगह रहेगी. हम मे हर एक, हर पल इनमे से कम से कम किसी एक को चुन रहे होता है.
विरोधाभास से भरे हुये जगत मे हम अपने मन मुताबिक चुनाव करते हुये अपनी जिदंगी को जीते है. यह चुनाव हमारे अनुभव और प्रारब्ध क  परिणाम होता है. 95% चुनाव मे ज्ञान का कोइ लेना देना नही है. हम करते वही है जो हमारे अनुभव के अनुसार सही होता है. इसलिये हम ज्ञान देते समय कुछ ओर होते है और जब खुद पर गुजरती है तो कुछ ओर.
सही चुनाव मे हमारी चेतना का विकास छुपा हुआ है. सही चुनाव समाज और पर्यावरण का सही विकास है. जब हम एसा करते है तो हमारी चेतना का विकास होता है. मेरी समझ से हमे चेतना के स्तर को उपर उठाते जाना है उसे विस्तार देते जाना है. यही हमारी होने की वजह है. यह सही है की चेतना सर्व व्यापी है और असीम ज्ञान का स्रोत है वो सबके लिये उपलब्ध है. पर वो किसी में शून्य के करीब हो सकता है जिसे हम जड कहते है और किसी मे वो असिमित होकर इश्वरीय हो जाता है.
जब ज्ञान अनुभव मे बनकर हमारे अंतर्मन का हिस्सा बन जाता है तो या तो वो हमारी चेतना का विस्तार करता है या फिर उसका संकुचन करता है उसे जड की तरफ ले जाता है. जो ज्ञान हमारे अनुभव के साथ विरोधाभास पैदा करे वो हमारे अदंर ग्लानी और अपराध बोध पैदा करता है. जब भी एसा होता है हमारी चेतना का स्तर नीचे होता जाता है. जो ज्ञान हमारे अनुभव से मेल खाता है उससे हमारी चेतना का विस्तार होता जाता है. हमारे अंतर्मन की शक्ति बढती चली जाती है.
एक नजर मे देखने से लगता है की हमे पूरी आजादी है की हम किसी घटना का क्या मतलब निकाले और उसका केसे उपयोग करे, पर सच यह है की हर व्यक्ति अपने अनुभव के आधार पर ही उसका मतलब निकालता है. और उसका उपयोग करता है. एक ही घटना हर व्यक्ति पर अलग अलग असर करती है. हर व्यक्ति उसे अपने नजरिये से देखता है. एक ही घटना किसी के लिये अच्छी और किसी के लिये बुरी हो सकती है.
गुट बनाना हमारी नियती है, हम गुट धर्म, जात, रंग, भाषा, देश, पसंद और नापसंद जेसी किसी भी आधार बना सकते है. हद तो यह है की निर्ग़ुट होना भी अपने आप मे एक गुट ही होता है. आप किसी भी गुट मे शामिल हो सकते है कुछ गुट तो आप को स्वत: ही मिल जाते है उससे आप बच नही सकते..जेसे देश , राज्य, धर्म, लिंग, भाषा इत्यादी. किसी ही गुट की अंध भक्तों की तरह अनुसरण ना करे. एसे मे आप उसके गलत पहलू पर नजर नही डाल पाते जो अकसर नुकसान देह होता है. वेसे भी आज ग्लोबल युग का जमाना है आज विश्व नागरीक होने की बात हो रही है. हमारे किये का असर देश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे देश को प्रभावित करने लगा है. एसे मे हमारी जिम्मेदारी ओर बढ जाती है.
जिस गुट मे भी रहे उसके प्रर्ति उदासीन न हो. हमारी सक्रिय भूमिका बहुत जरूरी है. वरना गलत लोग और गलत बातें अपना सिर उठाने लगेगी. याद रखे की खुद के अच्छे होने का कोइ मतलब नही है अगर हम किसी गलत के लिये काम कर रहे हो. शरीर को जिंदा बनाये रखने के लिये हम सब हम पूरी तरह अपने पर्यावरण और समाज पर निर्भर है समाज मे रहते हुये हम एक दूसरे की मदद करते हुये एक दूसरे के लिये जिंदा होने का कारण बनते है. हम समाजिक प्राणी है, हमे समाज मे रहते हुये एक दूसरे के लिये कुछ ना कुछ करना होता है, हम मे हर एक को समाज मे कोइ ना कोइ भूमिका अदा करनी होती है. एसे ही समाज चलता है. समाज मे हमारा कोइ ना कोइ रोल होता है. कुछ लोग अपना रोल खुद तय करते है, और कुछ लोगों को उनका रोल बताना होता है. हमारे होने का कारण हमे खुद खोजना होता है या फिर कोइ भी अकल मंद और ताकतवर हमारा इस्तेमाल अपने तरीके से कर सकता है. अच्छा हो की हम खुद अपने मकसद को खोजे. इससे भी ज्यादा जरूरी है की जिस समाज मे आप रह रहे है उसे जाने समझे और तय करे कि उसे क्या दिशा देनी है और फिर उस पर अमल करे.
हम सब एक एसे समाज का सपना देखते है जिसमे सब सुखी और संपन्न हों, सब को तरक्की के समान अवसर मिले. सभी एक दूसरे का सम्मान करे , आदर करे. जो नियमो का उलंघन करे , अराजकता फेलाये उसे उचित दंड मिले. यह आपकी और हमारी इच्छा है. अगर हम सब इस इच्छा के अनुरूप कर्म नही करेगे तो एक अच्छे समाज को केसे बना सकते है. अब जरा हमारी इस सोच पर गोर करे की हमारा घर स्वच्छ साफ रहे और इसके कारण सार्वजनिक जगहे चाहे गंदी बनी रहे. गंदगी फेलाने का काम हमारा और उसकी सफाइ का काम किसी ओर का. चोरी, लूट, सीनाजोरी, रिश्वत खोरी करके किसी भी तरह हम अमीर हो जाये हमारा काम बन जाये उसकी वजह से अगर समाजिक ताना बाना टूटता है टूटने दो. समाज और देश बरबाद हो जाये तो हमारी बला से.
जब हमारा "मैं और मेरा " इतना मजबूर और संकीर्ण हो जाये की उसमें किसी दूसरे के लिये जगह ना बचे और उसके आगे समाज और देश बोना नजर आये तो एसी चेतना हमे, हमारे समाज को हमारे देश को नीचे और नीचे ले जाती है. एसे मे कुछ लोग वैभवशाली तो बन सकते है पर सुखी नही बन सकते. उन्हे हर समय गरीबी और भुखमरी से जूझ रही बाकी समाज से डर बना रहता है. एसे माहोल मे फासिस्टवाद आंतकवाद जोर पकडता है, और जगंल का कानून लागू हो जाता है.
उद्योगिक क्रांती से पहले का इतिहास देखे तो पता चलता है की उस समय कुछ हजार या लाख लोगों का समूह होता था. उनकी अपनी भाषा अपनी संस्कृति और अपना धर्म होता था. सही हो या गलत हर किसी को राज्य और धर्म का अनुसरण करना होता था. बदले मे उनसे उन्हे सुरक्षा मिलती थी. सभी को अपने अपने हुनर मे उस्ताद होना होता था जो बहुत कुछ उन्हे उनके परिवार से विरासत मे मिल जाता था. ज्ञान का प्रसार सोच समझ कर होता था. सच पूछा जाये तो अधिकांश के पास ना तो ज्ञान के लिये समय होता था ना उस तक उनकी पहुच होती थी. उन्हे तो बस धर्मानुसार, राज्य नियमों के तहत सही आचरण करना होता था. जो नही करते थे उन्हे धर्म और राज्य अपराधी घोषित कर देता. इस तरह आम मेहनत कश आदमी की जिंदगी चल रही थी. जो भी अच्छा बुरा होता तो उसका असर सिमित दायरे मे ही रहता था . आज स्थति बदल गई है. आज पृथ्वी एक छोर पर कोई देश एटम बम बनाकर उसके दूसरे छोर पर स्थित किसी किसी देश मे फोड सकता है.
आज बहुत से वाद हमारे बीच मे है जेसे समाजवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद , बजारवाद, फासिस्टवाद , कम्यूनिस्टवाद, अनगिनित धर्म और संप्रदाय है. एसे मे कोइ क्या करे क्योंकी इनमे जम कर विरोधाभास मोजूद है. एसे मे इनका एक ही जगह एक साथ होना आपसी मन मुटाव क जन्म देता है. पर इन सब को साथ जीना अब हमारी नियती है इसलिये हमे उदार और सहन शील होना ही पडेगा. क्योंकी हमारा खुद का मन एक ही बार मे इन सब विचारों को ग्रहण कर रहा है और हम सब को इनमे से बहुतों मे कुछ अच्छाइ और कुछ बुराइ नजर आती है. हमे इतना तो उदार होना ही पडेगा जिससे हम इनमे मोजूद अच्छाइ को पहचान कर उसे ग्रहण कर सके एसे ही तो evolution होता है. आज हम ग्लोबल है, पुराने दकियानूसी विचारों को लेकर कोइ भी  समाज  तरक्की नही कर सकता है. समाज/ समूह के हित मे जो ठीक है उसे ही करे और उसे ही माने यही समर्पण भाव आपके पाप और पुण्य के निरधारण का कारण भी बने. तभी उस समूह/ समाज का भला हो सकता है.
सभी अपने-अपने धर्मों मे मोजूद रिती रिवाजों से परे जाकर उसमे निहित अध्यात्म को समझे. यही अध्यात्म विज्ञान की आंखे बने साथ ही धर्म मे मोजूद रितीरिवाजों को विज्ञान की कसोटी पर कसते हुये उसमे मे अवैज्ञानिक बांतो को बाहर करे. साथ ही धर्म को किसी भी व्यक्ति का निजी मामला मानते हुये उसे अपनाने की खुली छूट दे साथ ही यह भी ध्यान रखे की उसकी धार्मिक अस्था किसी दूसरे के लिये सिर दर्द ना बन जाये. धर्म किसी के लिये भी अध्यात्मिक उन्नति का कारण बने. बिना अध्यात्म के विज्ञान दिशाहीन साबित हो रहा है.
हम सब का इश्वर हमारे अदंर है उसे कितना ताकतवर बनाना है या कितना कमजोर यह हमारे उपर है. हम मे से हर एक उस की असिमित ज्ञान और ताकत का हकदार उतना ही है जितना कोइ भी पेगंम्बर, धर्म गुरू या फिर तानाशाह. अगर एसा ही है तो फिर मे कमजोर वो ताकतवर क्यों है, मे गरीब और वो अमीर क्यों है, वो वैभव शाली और मे फटेहाल क्यों हू. उसने एसा क्यों किया अगर इसका विशलेषण किया जाये तो पता लगएगा की वो उसकी नही हमारी इच्छा थी.
हमे वो नही मिलता जिसकी हमे चाह है, वरन वो मिलता है जिसके हम हकदार है. क्योंकी हर पल हमारे पास अनगिनित विकल्प  होते है. पर हम अपने संस्कारों, प्रारब्ध, डर, लालच और आलस से वशीभूत होकर उन विकल्प मे से जो उस समय हमे सबसे सही लगता है उसीका वर्तमान मे चुनाव कर रहे होते है. और यही वर्तमान कुछ क्षण मे भूतकाल बन जाता है और इसी वर्तमान से भविष्य का निर्धारण भी होता है. 
भूत काल बीता हुआ काल है और भविष्य हमारी पहुच से बाहर है जो हमारे बस मे है वो है हमारा वर्तमान अगर हम कुछ ठोस कर सकते है तो वो वर्तमान ही है. असिमित विकल्प मे से सही का चुनाव और उस तुरंत अमल ही सबसे महत्वपूर्ण है. हमारी मन चाही सफलता हमारी सोच और हमारे सही कर्म पर निर्भर है. यह हमारी सही समय पर सही निर्ण्य लेने की क्षमताओं मे निहित है. ये उस काम की तरफ उठाये गये हर कदम से मजबूत और ताकतवर होती है. इसी मे सारा रहस्य छुपा हुआ है.
प्राकृति के नियम नास्तिक और आस्तिक मे फर्क नही करते उसी तरह हमारे मन और शरीर के भी कुछ नियम है जो नास्तिक और आस्तिक मे फर्क नही करते है. इन नियमों को अपना कर कोइ भी अपने अदंर अभूतपूर्व बदलाव ला सकता है और मन चाहा पा सकता है. हम मे हर कोइ एक मजबूत समूह, समाज का निर्माण कर सकता है. इससे कोइ फर्क नही पडता की समूह या समाज किसी के भले के लिये है या बुरे के लिये 
हमारे आसपास नारे लगाते गरीब मजदूर संघ है तो पूंजीपति भी है, तानाशाह भी है, आतंकवादी भी है, डाकू भी है, साधू भी है, नेता भी और सेकडो राजनैतिक पार्टीया भी, ठगों और ह्त्यारों का समूह भी. नशे तरस्कर भी. एटम बम बनाते हुये भी वही इश्वरीय शक्तिया काम मे लाइ जाती है जो किसी आधुनिक अस्पताल को बनाते हुये काम मे आती है. सच मानिये इसमे इश्वर कोइ फर्क नही करता. आप जो चाहो जेसा चाहो इस संसार मे कर सकते हो. जिस तरह इश्वर के नाम पर मंदिर और मस्जिद बनाने के लिये लोग एक जुट हो जाते है तो उन्ही मंदिर और मस्जिद को तोडने के लिये भी लोग उसी आसानी से एकजुट हो जाते है. दोनों ही बार एक ही इश्वरीय प्रेरणा और ताकत काम कर रही होती है, इसलिये जिसकी एक जुटता ज्यादा मजबूत होती है वही सफल होता है
पाप क्या है और पुण्य़ क्या है...क्या हम किसी भी एक घटना और व्यवाहर का पाप और पुण्य़ तय कर सकते है. जो हर परिपेक्ष में हर कोण से हर काल मे वो एक जेसी ही परिभाषित हो! असल मे पाप और पुण्य हमारे ही द्वारा तय की गई समाजिक मान्यताये है जिसको आधार बनाकर किसी समाज की रचना होती है. पाप और पुण्य़ की परिभाषाये समाज, काल और स्थान के साथ बदलती रहती है. हर समूह का अपना अपना पाप और पुण्य का हिसाब किताब है जो इश्वर के नाम पर तय किया जाता है. हर समूह के अपने कुछ मूल्य और नियम , कानून होते है चाहे वो समूह धर्म के नाम पर हो, देश के नाम पर हो या ओर किसी भी नाम पर उसके अनुयायों को उन को मानना होता है. जब भी उसके अनुयायी एसा कुछ कर देते है जो मूल्य और नियम , कानून के विरूध हो तो उसके अदंर डर और ग्लानी का भाव पैदा हो जाता है. इसी को अपराध या पाप कह सकते है. जो उनकी चेतना को नीचे ले जाता है अगर एसा बहुत से अनुयायी महसूस कर रहे हो तो सारे समूह की चेतना नीचे चली जाती है. एक समय एसा आता है जब उस समूह की चेतना जड होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है. और वो समूह नष्ट हो जाता है.
जेसे एक उदाहरण से समझे, इस देश मे पुरातन काल से उपहार देने की पृथा है. उपहार हम अपने से उपर वाले/ बरबर वाले को देते है जिससे उसकी कृपा दृष्टी उपहार देने वाले पर बनी रहे . काम जल्दी हो जाये इसके लिये हम सामने वाले से प्रथना करते है य फिर उसे उपहार देते है. जितना बढा उपहार उतनी खस कृपा दृष्टी. जितना बढा उपहार देता था उतनी ही असानी से उसका काम हो जाता था. आज उस उपहार के लेन देन को हमारे देश में रिश्वत का नाम दे दिया गया है और अब एसे लेनदेन को अपराध घोषित कर दिया गया है. नतीजा जिस काम को पहले करने मे कोइ ग्लानी या अपराधबोध नही होता था आज उसी को करने मे डर और अपराधबोध का जन्म हो रहा है. अपराध बोध उपहार लेने देने से नही है अपराध बोध पकडे जाने का है. इसका नतीजा यह हुआ की आज भी चोरी छुपे उपहार का लेन देन चल रहा है. पहले कम से कम लोगों को मालुम होता था कि किस ने कितना लिया पर आज कुछ पता नही चलता. इस देश का लाखो करोडो रुपया या तो जमीन के नीचे है या फिर किसी स्वीस खाते मे. जो धन दौलत इस देश की तरक्की मे काम आ सकती थी वो या तो आज किसी काम की नही रही या फिर देश के विरूध ही इस्तेमाल हो रही है.
रिश्वत हमारे यंहा इस लिये फल फूल रही है क्योंकी हमारा अनुभव इसके पक्ष मे है. हमे लगता है की रिश्वत के साथ काम आसानी से हो जाता है. इसकी एक ओर वजह है की हमारे यंहा ज्यादातर स्व्यं सेवक, नेता और राज नेता सार्वजनिक या समाजिक काम के लिये कोइ फीस नही लेते है. उनका काम उपहार और चंदे से ही चलता है. इस देश मे सेकडो रजनैतिक पर्टीया है और उनके हजारों कार्य कर्ता जिन्हे कम के बदले कोइ वेतन नही मिलता उन्हे अपना खर्चा स्व्यं ही उठाना पडता है. जो इसी तरह के चंदे और रिश्वर खोरी .और कमीशन खोरी के सहारे अपना खर्चा चलाता है , क्या इसको मात्र कानून बना कर खत्म किया जा सकता है?
मै रिश्वतखोरी के पक्ष मे कोइ वकालात नही कर रहा हू मे बस यह बताने की कोशिश कर रहा हू की संस्कृति को ना बदल कर सिर्फ कानून बना देने से कितना नुकसान होता है.
एसे बहुत से कानून रितीरिवाज है जो बेवजह हमारे अदंर गलानी और अपरध भाव पैदा कर रहे है. जिस काम को 10 मे 8 लोग चोरी छुपे कर रहे हो तो उसे सिर्फ कानून बनाकर नही रोका जा सकता. उसके लिये सही संदर्भ और सही शिक्षा जरूरी है जेसे आजकल हम धुम्रपान के विरूध या फिर ड्र्ग्स के विरूध सही मुहिम चलाकर कर रहे है. सोचो अगर हम सही जानकारी लोगों तक ना पहुचाकर सिर्फ कानून के दम पर धुम्रपान या ड्रग्स रोकने की कोशिश करते तो क्या होता. एसा माहोल बने की 10 मे से 8 ओग स्वत: ही इसके विरूध हो जाये फिर बाकी बचे 2 लोगों को डरा धमकाकर भी रोका जा सकता है
हमे संस्कारों का पुन: निरिक्षण करने की जरूरत है क्योकी डर, लालच और क्रोध हमारी चेतना के स्तर को नीचे ले जाता है वंही प्यार और भरोसा और आनंद उसे नई उचाइ पर ले जाता है. यह हम पर निर्भर है की हम चेतना को किस स्तर पर ले जाना चाहते है. हमारी मिली जुली चेतना ही हमारे समाज की चेतना बनती है. जेसे जेसे चेतना नीचे जाती है समाज मे पाप बढते जाते है. एक दूसरे का जीवन दूभर होता जाता है. इसलिये हर समूह को समय समय पर अपने समूह के मूल्यों नियम और कानून का पुनर्वालोकन करते रहना चाहिये. जिसए उसके समूह की चेतना सही बनी रहे.
अगर अचानक मेरे सामने इश्वर आ जाये तो उसे केसे पहचानूगा. उससे क्या मांगूगा. बहुत सोचने के बाद भी मेरे आस पास है या जो कुछ है जिसकी भी अनभूति है उससे आगे मे नही सोच पाता हू आज अगर एसा कुछ हो जाता है और इश्वर मेरे सामने आ जाये तो धन दौलत, ताकत और शोहरत से आगे मेरा दिमाग नही जा पाता. यह तो इस संसार के लाखों करोडों लोगों के पास पहले से ही है. अगर इसे ही पाना है तो इसके लिये इश्वर की जरूरत केसी। 
जेसे उन लोगों ने हासिल किया है वेसे ही मे भी हासिल कर लू.... ओह तो मे यह चाह रहा हू की इश्वर की कृपा से वो सब मुझे बिना किसी गुंताडे से, बिना किसी मेहनत से बिना किसी कष्ट के आसानी से मिल जाये जिसके बाद मे एश की जिंदगी बसर कर सकू और बाकी जाये भाड मे. साथ ही मेरी सोच इतनी संक्रीण है की जो कुछ भी मेरे पास है उसे बांटने के बारे मे सोच भी नही पाता.
पृथ्वी पर मोजूद इस संसार के कुछ नियम तुलनात्मक रूप से शाश्वत है और कुछ समय, काल स्थान पर उस समाज के बनाये. इन्हे समझे बगेर तुम मन चाहा नही कर पाओगे. प्राकृति के शाश्वत नियमों को समझकर विज्ञान ने जो तरक्की की उसका फायदा हम सब ले रहे है. उसी तरह कुछ नियम हमारे धर्म समाज और देश ने हमे दिये, उन्हे समझे और उन पर अमल करे. जो गलत नियम है उसके बारे मे लोगो से चर्चा करे अपनी बात को जोर दार तरीके से रखें.
पूरा खेल इस मै का है, जब तक मै संकीर्ण सोच से घिरा रहेगा, जब तक हम मेरा और तेरा करते रहेगे हमे बार बार किसी बाहरी इश्वर की जरूरत होगी जो हमारी इस सकीर्ण सोच को पोषित करता रहे. इसी जरूरत को कुछ चालाक लोगों ने पहचाना और एसे लोगों के लिये कस्टम मेड भगवानों की इजाद कर दी जिन्हे लोग इश्वर समझने लगे.
जेसे जेसे इस मै का विस्तार होता जाता है, चेतना का भी विस्तार होता जाता है. जेसे जेसे चेतना का विस्तार होता जाता  है इन भगवनों की जरूरत कम होती जाती है. पर अचानक एसे लोगों को इश्वर मान  लोग पूजने लगते है और एक ओर भगवान क उदय हो जाता है. 
मेरा समझ से यह जानवर से मानव और उसके बाद उसकी इश्वर बन जाने की प्रक्रिया है जिसे हमे जन्म और मृत्यु के चक्र में रहते हुये सीखनी होती है अगर नही सीखे तो दुबारा जन्म लो... यह हमारे बार बार जन्म लेने की गाथा है.
उसने हमे जिस पाठशाला मे भेजा है उसमे कोइ शिक्षक नही है. हमे खुद ही शिक्षक है और हम ही शिष्य. सीखना भी हमे ही है और सीखाना भी हमे ही है ..राम, कृष्ण, जीसस, बुद्ध, मोहम्म्द जेसे लोगों का जीवन और उनके जीवन ही एक सीख है उसे सही संदर्भ मे समझकर कुछ सीख सकते हो तो सीखो... उसकी सीख पर चल सकते हो तो चलो. सिर्फ नाम जपने से कुछ नही होगा . उस तरफ प्रशन उछाल देने भर से भी कुछ नही होगा. प्रश्न भी आप हो  उनका उत्तर भी आपको ही देना है...जय हो 
मंथन अभी चालू है  दुर्वेश 

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