हमें समाजवाद की
भाषा तो समझ नही आइ. हम मिल जुलकर जन सेवा का काम करना भूल कर हम बेशर्म होकर अपने
काम की / माल की ज्यादा से ज्यादा कीमत वसूल ना चाहते है और सामने वाले को कम से
कम कीमत देना चाह्ते है. पैसे और रूतबे की शान दिखाते हुये मंहगी गाडी में घूमते है,
फिर
बजारवाद तो आना ही है .
दबंगी, चालाकी, मक्कारी, चापलूसी
गुण में गिनने लगे. जब किसी की प्रतिष्ठा इस बात से हो की उसका बैंक् बेंलेस क्या
है...और वो किस गाडी मे सफर करता है. जब इस बात को अनदेखा कर दिया जाने लगे की
कमाइ के साधन पवित्र और कानूनी है या फिर कुछ ओर जब रक्षक ही
भक्षक बन जाये तो समाज और देश को बरबादी से कोन रोक पायेगा.. अगर नही, तो फिर बजारवाद तो आना ही है .
पढा लिखा होने का
मतलब जरूरी नही की आप देश और समाज के कानून के साथ हो
समाज के लिये हो. आज ज्यादा पढा लिखा होने का मतलब चालाकी, मक्कारी, चापलूसी
को अपने लिये इस्तेमाल करने की कला को जानना है.. जो सीख गया वो तर गया और जो नही
सीख सका वो लाइन मे सबसे पीछे खडा दिखाइ दे रहा है. अगर आप पैसा फेंकने को तैयार
है तो कानून के जानकार आपको बतायेगे की केसे अपने फायदे के लिये उसका इस्तेमाल
किया जा सकता है. तो फिर बजारवाद से शिकायत केसी.
हम भले ही किसी
जमाने मे समाजिक थे पर अब समय का पहिया उल्टा चल पडा है. जिस संस्कृति ने ‘हम’ का
पाठ पढाया आज वो मै ...मै कर रही है. समाज तेजी से अपने मूल्य बदल रहा है, सादगी
कब हमारी कमजोरी बन गई हमे पता ही नही चला. राजनिती भी सफेद से गरूये रंग मे ढ्लने
लगी. इन बदलते मूल्यों मे शब्द भी अपनी
परिभाषा बदल रहे है. अन्ना जेसे लोग गंदगी से भरे तालाब मे लहर तो पैदा कर देते है
पर गंदगी की सफाइ का टाइम आया तो अन्ना अलग खडे दिखाइ देते है, तो फिर बजारवाद तो आना ही है.
हमे समय ने इस हद
तक सुविधा भोगी बना दिया है कि अपनी सुविधा के लिये हम कुछ भी कर गुजरते है. हमने
हम की परिभाषा को इतना समित कर लिया है के पडोसी भी हमे दुश्मन नजर आता है. जब तक
हमारी सुविधा बरकारार है हमें कोइ चिंता नही. हमने
समाज को कमजोर किया हर वो काम जो समाज मे आसानी से मिलजुलकर हो सकता था हमने खुद
सरकार की झोली मे डाल दिया और जब सरकार नही कर सकी तो उसे बजार
ने हडप लिया,
तो फिर बजारवाद तो आना ही है ..
सरकारी अस्पतालों
हो या स्कूल उनका जो हाल है किसी से अब छुपा नही है. हमने भी तो सरकार की बुरी गत
नबाने मे कोइ कसर नही छोडी. हम ने हर सार्वजनिक काम उसके जिम्मे छोड दिया. इस
उम्मीद मे की वो हर काम मुफ्त मे या बेहद सस्ते मे कर देगी. चाहे वो बिजली हो पानी
हो या फिर सडक हर जगह हमने चोरी की और सीना जोरी की. उसका नतीजा की जिस सडक पर कभी
10 रूपया चुंगी लगती थी अब 100 रूपये है...पहले 10 रूपया देने मे नानी मरती थी अब
100 रूपये खुशी खुशी दे रहे है तो फिर बजारवाद तो आना ही है ..
हम चाहते है की
सरकार हमे पानी 5 पैसे प्रति लीटर से भी कम दामों मे दे. वही पानी हम बाजार से 15
रूपये में खरीदते है. हद तो यह है की हम 15 रूपये मे पानी की बोतल खरीद कर गर्व
महसूस करने लगे है. तो फिर बजारवाद तो आना ही है ..
सरकार भी हमें
सब्ज बाग दिखाते हुये विश्व बेंक और अन्य विकसित देशों से कर्ज पर कर्ज लेती रही और लोगो को मुफ्त खेरात या रियायत देकर
सस्ती लोकप्रियता बटोरती रही. आज कर्ज मे डूबा देश विश्व बजार में बिकने को तैयार
है. तो फिर बजारवाद तो आना ही है ..
हमारा लोकतंत्र
टिका है वोट बेंक पर. जिसे वोट देना है उसको अपनी ओर मोढने के लिये प्रचार की
जरूरत होती है प्रचार होता है पैसे है ...बहुत सारे पैसे से. ये पैसा चंदे से
हासिल नही किया जा सकता. ना उसे खून पसीने की कमाइ मे से उसे दिया जा सकता. उसे
हासिल किया जाता है उन लोगों से जो बाजार से पैसा कमाना जानते है अगर यह सब सही है
तो फिर बजारवाद तो आना ही है ..
सच तो यह है की
हम ने बजारवाद को अपना लिया है. इसलिये अब हमे किसी मुगालते मे नही जीना चाहिये
क्योंकी बजार चलता है पूजीवादियों से,
राजसत्ता से, राजनेताओं से, डर से, लडाइ से और आंतक वाद से, इसलिये अब बाजार को
कोसना या गाली देना छोडो और जो चल रहा है उससे बेहतर विकल्प दे सकते हो तो दो.
वर्ना अपनी समझ
से तो जब तक देश का प्रत्येक
नागरिक, 'व्यक्तिवाद' को त्याग कर, समाज को नहीं अपनायेगा तो देश में बजारवाद
आना ही है ।
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