बनिया, बेटी की शादी और एफ डी आई....Retail FDI... Social responsibility
पर प्रतिक्रिया लेख
एक सपना सा लगता है की हर भारतीय अपनी मर्जी का मालिक था। स्वयं की खेती या स्वयं का धंधा था। नौकर किसी का नहीं था।
यह कोन से जमाने के किस भारत की बात हो रही है? जिस जमाने के सपने आप दिखा रहे है वो जमीदारी और राजे महाराजाओं का युग था. आम आदमी तो कीडे मकोडो की तरह सेकडॉ की संख्या में या तो खेतीहर मजदूर की तरह बेगार करता था फिर अछूत था. उन्हे दो जून रोटी मिल गई तो उस मालिक ( जमीदार) की दुआ मांनते थे. एक छोटे से कर्ज में गरीब अपने घर बार और खेती की जमीन से जुदा जो जाता था. जिस साहूकार की आप तारीफ कर रहे है उसकी गिद्द दृष्टि उस गरीब की जमीन जायदाद और बहू बेटीयों पर होती थी. लठ्ठ का जमाना था..जिसकी लाठी उसकी भेंस. जी हजूरी मे झुकी आंखे. अगर राज्य के विरूध जरा भी मूह खोला तो सीधे मौत. किस जमाने की बात कर रहे है... आप.!
आम आदमी जानवर से बदतर था और राजा इतना शक्तिशाली और दंभ से भरा हुआ की अपने को भगवान की तरह पुजवाता. आम आदमी उनेक द्वारा बनाये नर्क को भोगने का शापित वरना क्या कारण था की मोका मिलते ही लोग शहरो की तरफ भागे और मजदूर बन गये. आज भी किसानों कि हालत किसी से छुपी नहीं है. आज भी वो बेचने की जगह आलू को सड़क पर फेंकने को मजबूर हो जाता है. फसल पर 20 पैसे और बाद में 20 रूपये किलो...क्यों.
अब राजा महाराजा तो रहे नही, साहूकार मतलबी है. सरकार के पास कल्याण कारी योजनाओं के लिये पैसा है नही, नेता का धन स्वीस बेंक में जमा है. आम आदमी के पास थोडा बहुत अगर पैसा है तो वो उसे अपने बुरे समय के नाम पर दबा छुपा के बैठा है. विकास के लिये पैसा आये तो आये कहां से.... जो थोडा बहुत विकास आप देख पा रहे है सब उधार का.... अब अगर विकास के लिये उधार ही लेना है तो उससे तो अच्छा है की जिस से उधार लिया जाये उसे ही मुनाफे का हिस्सेदार बना दिया जाये. कम से काम इससे योजनायें समय पर चलू हो सकेंगी. दूसरा उन्हे पैसा वापस तो नहीं करना पडेगा.
इस देश का आज लाखों लोग 15 रूपये एक बोतल पानी खरीदने के लिये प्राइवेट दुकान दार को दे सकते है, वही आदमी चाहता है की सरकार उन्हे पानी 5 पैसे प्रति बोतल से भी कम दाम पर दे. आप और हम भी भावनाओं मे बेहकर 5 पैसे प्रति बोतल की वकालात करने लगते है. जब की सब को पता है की इसकी असली कीमत भी वही आम आदमी ही दे रहा है. या फिर पानी नाम पर कीचड पी रह रहा है. 5 पैसे के फेर मे 15 रूपये मे पानी बेचने वालों की चांदी हो जाती है.
पानी हो, सडक हो, या फिर बिजली हो....ठेठ सरकारी योजनाओं का हाल यह देश देख रहा है उनके भरोसे रहे तो...! लालटेन और बेलगाडी युग वापस आने में देर नहीं लगेगी. सरकरी योजनाओं में पब्लिक धन की जो बरबादी हमने की है. उसके कसीदे पढने के लिये यह जगह छोटी है.
मामला सिर्फ इतना भर है की कोई आप के देश के बजार को देख पा रहा है और आपके यहां आकर पूजी लगाना चाहता है. उसे लगता है की इस देश के बजार में वो मुनाफा कमा सकता है. उसकी पूजी इस देश में थोडा बहुत विकास लायेगी, यह विकास जेसा भी होगा और जो भी होगा वो उधार की पूंजी से बेहतर होगा...कम से कम उस कर्ज को लोटाने की जरूरत तो सरकार को ना होगी. वरना आम आदमी के टेक्स का पैसा तो कर्ज चुकाने में ही चला जायेगा.
इस पूंजी को कुछ लोग इस देश में लाने से कतरा रहे है और उन्हे लगता है की अगर ऐसा किया गया तो यह देश फिर से गुलाम हो जायेगा...उन्हे लगता है की इस्ट इंडीया वाली गलती फिर से दोहराई जायेगी. क्या आज वाकई ऐसा हो सकता है?? क्या उन्हे पूजी निवेश करा देने भर से हम फिर से गुलाम हो जायेगे? और भारी कर्ज लेने के बावजूद हम गुलाम होने से बचा जायेगे...अब मेरा खुला सवाल ...यह देश अपने विकास के लिये पूंजी की व्यव्स्था कैसे करे...?
FDI आयेगा तो हो सकता है की आलू की चिप्स को वो 200 रूपये किलो में बेचे...पर कम से कम आलू 20 पैसे किलो में बरबाद होने से तो बच जायेगा. इसलिये भावनाओं में ना बहकर हम समय को पहचाने. और उनकी पूंजी को अपनी ताकत बनाये. ऐसा राजनितीक माहोल बनाये की वो पैसा हमारी शर्तों पर लगाये. और जिस सेक्टर में हम चाह रहे है उसमे लगाये.....इससे आगे बढकर सिमित संख्या मे उन्हे रिटेल सेक्टर में आने दे...कुछ समय उसे देखे परखे उसके बाद इस पर फेसला करे की क्या अच्छा था और क्या बुरा. वरना कही ऐसा ना हो की ख्याली खतरे के चक्कर में यह देश पूंजी निवेश का एक अच्छा मौका हाथ से गंवा दे.
...वो खतरनाक है इसलिये की वो हिम्मती है, पर इस देश के कानून से उपर नहीं. भले ही उनकी दुकाने आलीशान होंगी पर अच्छे गोदाम और अच्छी सडको के बिना सब बेकार होंगी.
रही बात RSS के बंदो के सेवा भाव की तो उसका FDI से क्या लेना देना वो तो आगे भी एसे ही चलता रह सकता है.
चलो एक कहानी सुनाता हू...एक कसाई बकरे को बेचने बजार जा रहा था गर्मी के दिन थे भरी दुपहरी थी रास्ते में एक गांव में पानी पीने के लिये रुका गांव के लडको को जब पता चला की बकरा कटने के लिये हाट जा रहा है तो उन्होने उसे वंही काटने को बोला. कसाई भी लालच में आ गया सोचा भरी गर्मी मे हाट जाने से अच्छा है कि इसे यही काट कर बेच देने में भलाई है, और वो बकरा काट बैठा....
लडके समझदार थे उन्हे मालूम था की अब कसाइ कटे बकरे को लेकर यहा से कही नही जा सकता.....और उन्होने उससे बकरे का मांस अपने चाहे गये दाम पर ही खरीदा...हो सकता है इस कहानी से आप भी कुछ समझ पा रहे हों...!
जब तक हम जागरूक है....तब तक हमारे यहां पूंजी लगाकर खतरे मे वो है हम नही ...
पर प्रतिक्रिया लेख
एक सपना सा लगता है की हर भारतीय अपनी मर्जी का मालिक था। स्वयं की खेती या स्वयं का धंधा था। नौकर किसी का नहीं था।
यह कोन से जमाने के किस भारत की बात हो रही है? जिस जमाने के सपने आप दिखा रहे है वो जमीदारी और राजे महाराजाओं का युग था. आम आदमी तो कीडे मकोडो की तरह सेकडॉ की संख्या में या तो खेतीहर मजदूर की तरह बेगार करता था फिर अछूत था. उन्हे दो जून रोटी मिल गई तो उस मालिक ( जमीदार) की दुआ मांनते थे. एक छोटे से कर्ज में गरीब अपने घर बार और खेती की जमीन से जुदा जो जाता था. जिस साहूकार की आप तारीफ कर रहे है उसकी गिद्द दृष्टि उस गरीब की जमीन जायदाद और बहू बेटीयों पर होती थी. लठ्ठ का जमाना था..जिसकी लाठी उसकी भेंस. जी हजूरी मे झुकी आंखे. अगर राज्य के विरूध जरा भी मूह खोला तो सीधे मौत. किस जमाने की बात कर रहे है... आप.!
आम आदमी जानवर से बदतर था और राजा इतना शक्तिशाली और दंभ से भरा हुआ की अपने को भगवान की तरह पुजवाता. आम आदमी उनेक द्वारा बनाये नर्क को भोगने का शापित वरना क्या कारण था की मोका मिलते ही लोग शहरो की तरफ भागे और मजदूर बन गये. आज भी किसानों कि हालत किसी से छुपी नहीं है. आज भी वो बेचने की जगह आलू को सड़क पर फेंकने को मजबूर हो जाता है. फसल पर 20 पैसे और बाद में 20 रूपये किलो...क्यों.
अब राजा महाराजा तो रहे नही, साहूकार मतलबी है. सरकार के पास कल्याण कारी योजनाओं के लिये पैसा है नही, नेता का धन स्वीस बेंक में जमा है. आम आदमी के पास थोडा बहुत अगर पैसा है तो वो उसे अपने बुरे समय के नाम पर दबा छुपा के बैठा है. विकास के लिये पैसा आये तो आये कहां से.... जो थोडा बहुत विकास आप देख पा रहे है सब उधार का.... अब अगर विकास के लिये उधार ही लेना है तो उससे तो अच्छा है की जिस से उधार लिया जाये उसे ही मुनाफे का हिस्सेदार बना दिया जाये. कम से काम इससे योजनायें समय पर चलू हो सकेंगी. दूसरा उन्हे पैसा वापस तो नहीं करना पडेगा.
इस देश का आज लाखों लोग 15 रूपये एक बोतल पानी खरीदने के लिये प्राइवेट दुकान दार को दे सकते है, वही आदमी चाहता है की सरकार उन्हे पानी 5 पैसे प्रति बोतल से भी कम दाम पर दे. आप और हम भी भावनाओं मे बेहकर 5 पैसे प्रति बोतल की वकालात करने लगते है. जब की सब को पता है की इसकी असली कीमत भी वही आम आदमी ही दे रहा है. या फिर पानी नाम पर कीचड पी रह रहा है. 5 पैसे के फेर मे 15 रूपये मे पानी बेचने वालों की चांदी हो जाती है.
पानी हो, सडक हो, या फिर बिजली हो....ठेठ सरकारी योजनाओं का हाल यह देश देख रहा है उनके भरोसे रहे तो...! लालटेन और बेलगाडी युग वापस आने में देर नहीं लगेगी. सरकरी योजनाओं में पब्लिक धन की जो बरबादी हमने की है. उसके कसीदे पढने के लिये यह जगह छोटी है.
मामला सिर्फ इतना भर है की कोई आप के देश के बजार को देख पा रहा है और आपके यहां आकर पूजी लगाना चाहता है. उसे लगता है की इस देश के बजार में वो मुनाफा कमा सकता है. उसकी पूजी इस देश में थोडा बहुत विकास लायेगी, यह विकास जेसा भी होगा और जो भी होगा वो उधार की पूंजी से बेहतर होगा...कम से कम उस कर्ज को लोटाने की जरूरत तो सरकार को ना होगी. वरना आम आदमी के टेक्स का पैसा तो कर्ज चुकाने में ही चला जायेगा.
इस पूंजी को कुछ लोग इस देश में लाने से कतरा रहे है और उन्हे लगता है की अगर ऐसा किया गया तो यह देश फिर से गुलाम हो जायेगा...उन्हे लगता है की इस्ट इंडीया वाली गलती फिर से दोहराई जायेगी. क्या आज वाकई ऐसा हो सकता है?? क्या उन्हे पूजी निवेश करा देने भर से हम फिर से गुलाम हो जायेगे? और भारी कर्ज लेने के बावजूद हम गुलाम होने से बचा जायेगे...अब मेरा खुला सवाल ...यह देश अपने विकास के लिये पूंजी की व्यव्स्था कैसे करे...?
FDI आयेगा तो हो सकता है की आलू की चिप्स को वो 200 रूपये किलो में बेचे...पर कम से कम आलू 20 पैसे किलो में बरबाद होने से तो बच जायेगा. इसलिये भावनाओं में ना बहकर हम समय को पहचाने. और उनकी पूंजी को अपनी ताकत बनाये. ऐसा राजनितीक माहोल बनाये की वो पैसा हमारी शर्तों पर लगाये. और जिस सेक्टर में हम चाह रहे है उसमे लगाये.....इससे आगे बढकर सिमित संख्या मे उन्हे रिटेल सेक्टर में आने दे...कुछ समय उसे देखे परखे उसके बाद इस पर फेसला करे की क्या अच्छा था और क्या बुरा. वरना कही ऐसा ना हो की ख्याली खतरे के चक्कर में यह देश पूंजी निवेश का एक अच्छा मौका हाथ से गंवा दे.
...वो खतरनाक है इसलिये की वो हिम्मती है, पर इस देश के कानून से उपर नहीं. भले ही उनकी दुकाने आलीशान होंगी पर अच्छे गोदाम और अच्छी सडको के बिना सब बेकार होंगी.
रही बात RSS के बंदो के सेवा भाव की तो उसका FDI से क्या लेना देना वो तो आगे भी एसे ही चलता रह सकता है.
चलो एक कहानी सुनाता हू...एक कसाई बकरे को बेचने बजार जा रहा था गर्मी के दिन थे भरी दुपहरी थी रास्ते में एक गांव में पानी पीने के लिये रुका गांव के लडको को जब पता चला की बकरा कटने के लिये हाट जा रहा है तो उन्होने उसे वंही काटने को बोला. कसाई भी लालच में आ गया सोचा भरी गर्मी मे हाट जाने से अच्छा है कि इसे यही काट कर बेच देने में भलाई है, और वो बकरा काट बैठा....
लडके समझदार थे उन्हे मालूम था की अब कसाइ कटे बकरे को लेकर यहा से कही नही जा सकता.....और उन्होने उससे बकरे का मांस अपने चाहे गये दाम पर ही खरीदा...हो सकता है इस कहानी से आप भी कुछ समझ पा रहे हों...!
जब तक हम जागरूक है....तब तक हमारे यहां पूंजी लगाकर खतरे मे वो है हम नही ...
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