Friday, August 19, 2011

आरक्षण क्यों ?

(खुला पत्र)


जाति के नाम पर आपने हम 85% को तिरिस्कार की नजरों से देखा आज भी आप हमे अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहते, आज भी आप की भाषा में हमारे लिये तिरस्कार दिखाई देता है. हमे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं खोते. आपके पास ताकत थी रूतबा था तो आपने पीढी दर पीढी डंडे के बल पर हमसे बेगार कराई. हमे सढा गला खाने पर मजबूर किया. ज्ञान से दूर रखा. हमारी परछाई भी अगर आप पर पड जाती तो आप को गंगा स्नान करना पडता था. हम भेड बकरियों से भी गये गुजरे थे. आज आप बराबरी के ज्ञान की दुहाई दे रहे है, पर आप ही ने तो हमे अब तक ज्ञान से दूर रखा था. अगर हमारे कानों में ज्ञान का एक शब्द भी पड जाता तो कान में पिघला सीसा डाल देने का प्रावधान भी आप ने बना रखा था.

भला हो लोकतंत्र का , की उस बनाने वालों ने हमे इंसान समझा और आप जेसे लोगों को समझाया की हम भी आपकी तरह ही जीते जागते इंसान है कोई खतरनाक वाइयरस बेक्टीरिया नहीं की जिसे छूते ही आप या आप का धर्म नष्ट हो जायेगा. हमे वोट देने का अधिकार मिला और नेताओं को हमारी ताकत का पता चला और उन्हे हमारी खेरीयत की चिंता होने लगी...भले ही चिंता दिखावटी हो!

हमारी हजारों वर्षों की लाचारी और गरीबी से हमे उबरने में कुछ तो समय लगेगा ना! हमारे पास आज भी आपके जितना ज्ञान भले ही ना हो, पर इतना ज्ञान तो है ही की जिस नोकरी के लिये आवेदन किया है वो हम कर सके. पहले आपने हमे जाति के नाम पर प्रगति से वंचित रखा था..आज आप ज्ञान की दुहाई देकर हमे वंचित करना चाहते है. आज आप पढाई में लाखों खर्च करते है, आपके बच्चे अच्छे से अच्छे अंग्रेजी स्कूलों और कालेजों में पढते है, सबसे बेहतरीन शिक्षकों द्वारा हर विषय पर अलग से ट्यूशन लेते है. अब हम इतना पैसा कहां से लाये और आप की बराबरी करे. फिर भी हम बस इतना कहना चाहते है कि बस कुछ समय और दीजिये. उसके बाद आप से ज्ञान में भी बराबरी कर लेगे.

दलितों में जो गरीब है उन्हे आरक्षण देने की बात कहने वाले पहले बताये कि गरीब किस को बोलोगे. सरकार सिर्फ बीपीएल धारी को गरीब मानती है. बीपीएल क्या होता है कुछ पता है? जिसको एक रोटी का आसरा तक नहीं उस नंगे भूखे डरे और सहमे अपने लिये रोटी का इंतिजाम कर सके वो ही बहुत है. उसके पास तो खाने तक के लाले है वो क्या पढेगा और आप के हिसाब से क्या ज्ञान हासिल कर पायेगा... इतनी मंहगी शिक्षा वो अपने बच्चों को कैसे दे पायेगा ? जिस शिक्षा के माप दंड आपने बनाये है उसे हमारा गरीब क्या आपका गरीब भी हासिल  नहीं कर सकता जब तक की उस पर आप की सीधे मेहरबानी ना हो जाये.

असल मामला यह है की दलित में जो लोग थोडा पढलिख  गये है और रोजी रोटी के मामले में थोडा आत्म निर्भर हो गये है, अब आपको उन से डर लगने लगा है क्योंकी वो अब आपके एकाधिकार वाले क्षेत्र में आप से बराबरी की हिम्म्त जो कर रहे है. अब आपकी सामंति मानसिकता को यह कैसे स्वीकार होगा की जो कल आप के रहमो करम पर था वो आज आप के बराबर बैठने की हिम्मत कर रहा है. इसलिये अब आप गरीबी कि दुहाई देते है क्योंकी आप को मालूम है की गरीब तो आप से प्रतिस्पर्धा करने रहा.

अगर 45% मार्क्स और उम्र में 5 साल की छुट का समीकरण समझना है तो आप को  यह भी समझना होगा की 15% स्वर्ण 85% प्रतिशत पदों पर केसे?. क्या आपको मालूम है की मानसिक गुलामी क्या होती है. यह उसी का असर है वरना एसे क्या सुरखाव के पर आपमे लगे हुये है की 15% स्वर्ण 85% प्रतिशत पदों पर काबिज है. इन 65 सालों में दलित वर्ग जग गया है और अनचाही गुलामी से मुक्ती चाह्ता है. इसलिये इसे सम्मानपूर्वक मुख्यधारा में शामिल किया जाये. जिससे आपका सम्मान भी बना रहे. वरना यह काम अब वो खुद भी कर लेगा. फिर कल यह ना कहना की हम 15% को बस 15% ही?

कोटे को सामान्य से भरने पर इस लिये रोक लगाई गई क्योंकी वहां पर भी आपने चाल चलनी शुरू कर दी थी. हमारे उम्मीदवार रहते हुये भी आपने यह दिखाकर की कोई कोटे का उम्मीदवार नहीं है उसे सामान्य से भरना शुरू कर दिया. वेसे आरक्षण सिर्फ सरकारी संस्थाओं में ही तो है, बाकी सारा कारोबार तो आपका है, निजी संस्थान, स्कूल कालेज आपके, व्यव्साय आपका, अब कुछ तो हमारे लिये भी छोडीये. या आप अब भी चाह्ते है की 85% आबादी आप के रहमो करम पर जिये...?

आज आरक्षण कुछ हद तक सरकारी कार्यालयों और संस्थानों में ही कारगर हो रहा है. पर इधर भी ठेके पर काम कराने की चलन जोर शोर पर है. आरक्षण का मजाक उडाती ठेकेदारी. सरकारी अनुदान पर चलने वाले निजी संस्थानों का हाल और भी बुरा, अपने लिये सस्ती दरों पर जमीन, और रियायतें लेने में सबसे आगे पर जब सवाल आरक्षण का हो तो बोलती बंद.

अगर आप खुद कि उन्नति से ज्यादा देश की उन्नति चाहते तो आप कैसे 85% प्रतिशत आबादी को सिर्फ इसलिये नंजरदांज कर सकते है कि वो आपके द्वारा बनाये गये मापदंडॉ पर खरी नहीं है. यह आपकी ना समझी ही तो है की आप इस ताकत को अभी तक नहीं समझ पा रहे. अगर आप इतने ही होनाहार है तो हर हाथ को काम और हर पेट को सुनिश्चित कर दो फिर देखो आरक्षण का मुद्दा अपने आप खत्म हो जायेगा. वरना यह काम अब इन 85% पर छोड दो.

आपकी सोच और समझदारी तो अब देश की आम जनता को वेसे ही समझ आ रही है ..केसे अपने निजी स्वार्थों के लिये  देश को बेचने से भी शर्म नहीं करते है. कोई बतायेगा की विदेशी बेंको में जमा लाखों करोडों रूपये किस के है?..ओह हां याद आया आरक्षण फिल्म पर रोक लगाने जेसा कुछ भी नही है. यह उसे सस्ती लोकप्रियता भर दिला रहा है. बजारवाद का एक नया रूप. चलो अच्छा ही है, इस बहाने इस फिल्म को लोग देखेगे...वरना फिल्म कब आती और चली जाती किसी को पता भी नही चलता...

2 comments:

  1. मेरा अनुभव रहा है कि जातीय अंतर को लोग बहुत सहज भाव से लेते थे, कुछ यों कि जैसे यह तो ईश्वर ने ही बनाया है, उसे तो नियति के तौर पर स्वीकारा ही जाना चाहिए, सब एक समान भला कैसे पैदा हो सकते हैं ? जैसे राजा प्रजा से श्रेष्ठतर, धनवान निर्धन से श्रेष्ठतर, शिक्षित अनपढ़ से श्रेष्ठतर होता है, ठीक वैसे एक जाति दूसरे से श्रेष्ठतर होती है । इस तथ्य को सभी निर्विवाद रूप से स्वीकारते थे । जाति के मामले में तो पूरा भारतीय समाज मानसिक जड़ता का इस कदर शिकार है कि वह उसे स्वाभाविक एवं नैसर्गिक मानता है । आज भी आप कितना ही अधिक शिक्षित (सुशिक्षित नहीं!) हों जातीयता से मुक्त नहीं हो सकते ।जातीय अंतर का महत्त्व कितना गंभीर था इसे समझा सकना मेरे लिए आसान नहीं है । इसकी बारीकियां जिसने नजदीक से देखी हैं, वही समझ सकता है । इसको यों समझ सकते हैं कि सबसे ऊपर माने जाने वाले ब्राह्मण भी परस्पर बंटे हुए थे । तथाकथित सर्वाधिक कुलीन ब्राह्मण हर किसी अन्य ब्राह्मण के हाथ का बना भोजन तक नहीं ग्रहण कर सकते थे, उनके साथ वैवाहिक संबंधों का तो प्रश्न ही नहीं उठता था । इस अंतर को आप हुक्के-पानी का अंतर कह सकते हैं । ‘हुक्का’ बराबरी के स्तर पर ही परस्पर बांटा जा सकता है ! मेरा खयाल है कि ब्राह्मणों की 5 या 6 उपजातियां तो रही ही होंगी । हर स्तर के ब्राह्मण अपने से ‘निम्नतर’ वाले के बनाये भोजन से परहेज करता था । कुछ ऐसी ही परंपरा थी । अब यह भेद उतना स्पष्ट नहीं रह गया है, यद्यपि सैद्धांतिक स्तर पर इसका ज्ञान लोग रखते हैं । अन्य सभी जातियों के लिए ब्राह्मण सर्वोपरि थे । उनमें भी ऊंच-नीच की बारीकियां रहते आई हैं । हुक्के-पानी के अंतर के बावजूद साथ-साथ उठना-बैठना अधिकांश जातियों में आम बात थी, दलितों को छोड़कर । ...प्रकाश, अलमोडा

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  2. जातिभेद का सबसे अहम पहलू यह था कि ये दलित अस्पृश्य या अछूत हुआ करते थे । उन्हें छूना ‘ऊपरी’ जातियों के लिए वर्जित था । सुना है कि दशकों पहले उनके छू जाने पर लोग स्नान करके ‘शुद्धि’ प्राप्त करते थे । लेकिन मेरे जन्म से पहले ही ‘शुद्धि’ का तरीका अपेक्षया सरल हो चुका था । गंगाजल की भावना के साथ सामान्य जल के कुछ छींटे उस व्यक्ति के शरीर पर डाल दिये जाते थे जिनसे कोई दलित छू गया हो । दिलचस्प यह था कि ‘कुलीन’ लोगों ने उस स्थिति के लिए भी मान्य तरीका ईजाद कर लिया, जब आसपास जलबिंदु छिड़कने वाला कोई न हो । पेड़-पौधे की ताजी हरी टहनी जैसे साधन को पानी में डुबोकर स्वयं ही अपने ऊपर जल छिड़क लिया जाता था ।
    हमारे यहां की स्थिति इतनी विकट नहीं थी जितनी दक्षिण भारत में कभी हुआ करती थी, जैसे मैंने सुना है । कहा जाता है कि वहां दलित की छाया भी अगर सवर्ण के देह को छू जाये तो उसे शुद्धि की प्रक्रिया से गुजरना होता था ।
    प्रकाश, अलमोडा

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