Sunday, July 13, 2025

झूठ बोलना सीखें

 


सच बोलना आपको कमजोर बना सकता है। ईमानदारी आपको नुकसान पहुंचा सकती है। पारदर्शिता सब कुछ खुलकर बताना आपको दूसरों की चालों का शिकार बना सकती है। यह वो कड़वी सच्चाइयां हैं जिनके बारे में ज्यादातर मोटिवेशनल गुरु बात करने से डरते हैं। लेकिन आज हम इन बेरहम सच्चाइयों का सामना करने वाले हैं।  सोचिए चुनाव लड़ रहे दो नेताओं को। एक है X  जो बिल्कुल सच बोलता है। वह आने वाली मुश्किलों को खुलकर बताता है। झूठे वादे नहीं करता और मानता है कि सच बोलकर ही इज्जत मिलेगी। दूसरी तरफ है y जो खेल के असली नियम समझता है। वह लोगों को वही सुनाता है जो वह सुनना चाहते हैं। सच्चाई को थोड़ा मरोड़ कर आसान और मजेदार तस्वीर दिखाता है। तो जब चुनाव का दिन आता है


 जीत किसकी होती है? 


Y  की !


 क्यों? 


क्योंकि लोग सच पर वोट नहीं करते। वो उस कहानी पर वोट करते हैं जिस पर वे यकीन करना चाहते हैं। अब आप सोच रहे होंगे क्या झूठ बोलना गलत नहीं है? क्या ईमानदारी एक अच्छाई नहीं मानी जाती? लेकिन सोचिए क्या आपका यही सख्त नैतिक रवैया मोरल रिगडनेस ही तो आपको ग्रेटनेस यानी कामयाबी से दूर नहीं रख रहा। क्या दुनिया के सबसे कामयाब लीडर्स जिनको आप मानते हैं आदर्श मानते हैं। उन्होंने कुछ ऐसा नहीं समझा जो आप अब तक नहीं समझ पाए। आज हम उन सख्त और कड़वे सबकों पर बात करेंगे जो सत्ता, चालाकी और रणनीतिक धोखे, स्ट्रेटेजिक डिसेप्शन से जुड़े हैं। और क्यों इतिहास के विजेता अक्सर सबसे ईमानदार लोग नहीं होते। यह सफर आसान नहीं होगा। यह वो मीठी-मीठी सलाह नहीं है जो सोशल मीडिया पर मिलती है। लेकिन यह शायद वही है जो आपको सुनना चाहिए। 


चलिए शुरू करते हैं मैक्यावेली के सबसे मशहूर और विवादास्पद विचार से जो उसने डेड प्रिंस में लिखा था। अगर आप समझा नहीं बन सकते तो डराया जाना बेहतर है बनिस्बत प्यार किए जाने के। यह बात आजकल की लीडरशिप किताबों और कोचिंग से बिल्कुल उलट है जो हमसे कहती हैं लीडर को दयालु होना चाहिए। सबको जोड़कर रखना चाहिए। इंस्पायर करना चाहिए। मैकियावेली इसे खतरनाक भोलेपन नाइफटी की निशानी मानता था। उसका मानना था कि सत्ता स्वभाव से ही स्वार्थी, एहसान, फरामोश और बेईमान होती हैं। किसी सत्ता की चाहत रखने वाले नेता पर आंख बंद करके भरोसा करना बेवकूफी है। 


अगर लोग आपके वादे नहीं निभाएंगे तो आप क्यों निभाएं? यही इंसानों की सच्चाई पर आधारित था मैकिया हवेली का पूरा विचार। उसके हिसाब से बहुत ज्यादा ईमानदारी कोई अच्छाई नहीं बल्कि आपकी कमजोरी है। अब यह आपके लिए क्यों जरूरी है? क्योंकि चाहे आप बिजनेस चला रहे हो, सैलरी बढ़ाने की बातचीत कर रहे हो या अपनी सोशल लाइफ संभाल रहे हो, हर जगह एक पावर रिलेशनशिप होता है। और उस रिश्ते में अगर आप सारी सच्चाई खोल दें तो वह रणनीति नहीं होगी बल्कि सरेंडर होगा। जरा याद कीजिए जब आपने किसी डील में पूरा सच बताया था तो क्या सामने वाले ने भी वही ईमानदारी दिखाई या उसने आपकी पारदर्शिता का फायदा उठाया। 


अगर आप आम लोगों जैसे हैं तो शायद आपने यह सबक मुश्किल तरीके से ही सीखा होगा। लेकिन शायद अब भी आपके मन में यह डर होगा। क्या धोखा देना सही है? तो मैं आपसे एक सवाल पूछता हूं। क्या आपने कभी किसी को कहा कि उनकी हेयर कट अच्छी लग रही है? जबकि अंदर से आपको बिल्कुल पसंद नहीं थी? क्या आपने कभी किसी दोस्त के आईडिया की तारीफ जरूरत से ज्यादा कर दी? ताकि उसका हौसला बना रहे। क्या आपने कभी अपने असली जज्बात छुपाए ताकि झगड़ा ना हो? तो बधाई हो। आप पहले से ही एक तरह का मैकियावेली  व्यवहार अपना रहे हैं। आप सच का चुनाव सोच समझ कर रहे हैं ताकि हालात संभाले जा सकें। 


फर्क सिर्फ इतना है कि आप यह सब रक्षा के लिए कर रहे हैं यानी शांति बनाए रखने के लिए। मैकियावेली कहता इसे हमला करने के लिए इस्तेमाल करो यानी अपने मकसद पूरे करने के लिए। जब हम इस पावर के उलझे हुए खेल में आगे बढ़ते हैं तो मैकियावेली एक शानदार उदाहरण देता है। एक लोमड़ी बनो ताकि चालों को पहचान सको और एक शेर बनो ताकि भेड़ियों को डरा सको। यहां लोमड़ी का मतलब है चालाकी और रणनीति और शेर का मतलब है ताकत और डर पैदा करना। अगर आप सिर्फ शेर बनेंगे तो लोग आपको आसानी से जाल में फंसा लेंगे। अगर आप सिर्फ लोमड़ी बनेंगे तो आप इतने कमजोर होंगे कि अपनी रक्षा नहीं कर पाएंगे। 


एक सच्चा मास्टर वही है जो दोनों को मिलाकर इस्तेमाल करता है। नेपोलियन बोनापार्ट ने इस सिद्धांत को पूरी तरह दिखाया। एक जनरल के रूप में उसने दुश्मनों को धोखा दिया। अपने मूवमेंट्स छुपाए। नकली हार दिखाकर दुश्मनों को जाल में फंसाया। यह था लोमड़ी वाला खेल। लेकिन नेपोलियन को यह भी पता था कि कब शेर की तरह गर्जना है। जब वो जेल से निकल कर वापस फ्रांस आया और बिना एक भी गोली चलाए सत्ता वापस ले ली। सिर्फ अपनी छवि और डर के दम पर। ज्यादातर लोग सिर्फ एक ही तरीका चुनते हैं। या तो पूरी पारदर्शिता, साफगोई या सिर्फ ताकत या तो चालाकी या फिर सीधी जोर जबरदस्ती। 


लेकिन सबसे कामयाब लीडर्स हालात के हिसाब से इन तरीकों को बदलते रहते हैं। जरा स्टीव जॉब्स को याद कीजिए। उसका जो रियलिटी डिस्टॉर्शन फील्ड कहा जाता था वो एकदम लोमड़ी की तरह था। लोगों को यकीन दिलाना कि नामुमकिन भी मुमकिन हो सकता है। अपनी टीम की सीमाओं को तोड़ देना। साथ ही जब जरूरत पड़ी तो वह शेर की तरह सख्त और डराने वाला भी बन जाता था ताकि उसका मिशन पूरा हो सके। असल में सबसे जरूरी चीज है कॉन्टेक्स्ट यानी हालात को समझना। जब दांव बहुत बड़ा हो जिंदगी मौत का सवाल या बहुत बड़ी बिजनेस डील तब पूरी ईमानदारी एक ऐसी लग्जरी है जिसे आप अफोर्ड नहीं कर सकते। 


लेकिन अपने सबसे करीबी लोगों के साथ ईमानदारी वही भरोसा बनाती है जिसकी आगे चलकर आपको जरूरत होगी। शायद मैं मैकियावेली  का सबसे बेचैन कर देने वाला विचार यह था। दिखावा बनाम असली हकीकत। उसने लिखा हर कोई वही देखता है जो आप दिखाते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आप अंदर से असल में कैसे हैं। उसका कहना था एक राजा को अच्छाई की एक्टिंग आनी चाहिए। असल में अच्छा होना जरूरी नहीं। जैसे जूलियस सीजर को देखिए। उसने बाहर से दिखाया कि वह रोम के लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करता है। लेकिन अंदर ही अंदर उसने अपनी ताकत मजबूत कर ली। 


उसने पब्लिक में ताज लेने से मना कर दिया। लेकिन पर्दे के पीछे सीनेट को कमजोर करता रहा। लोगों को तब भी लगता रहा कि उनका गणराज्य जिंदा है। जबकि असल में वह एक साम्राज्य बन चुका था। आज भी यही देखिए सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरर जो अपनी लाइफ को परफेक्ट दिखाते हैं पर असली परेशानियां छुपाते हैं। राजनेता जो फैमिली वैल्यूज की बातें करते हैं। लेकिन पर्दे के पीछे कुछ और करते हैं या कंपनियां जो पर्यावरण की बातें करती हैं। लेकिन असल में शॉर्टकट लेती हैं। क्या यह धोखा है? हां। क्या यह असरदार है? हां बिल्कुल। तो क्या इसका मतलब है कि आपको पूरी तरह नकली बन जाना चाहिए? नहीं। 


रणनीतिक असंगति, स्ट्रेटेजिक इनकंसिस्टेंसी। आपको वही रूप दिखाना चाहिए जो आपके लक्ष्य के लिए सही हो और धीरे-धीरे जब भरोसा बने तब अपनी और बातें सामने लानी चाहिए। जैसे पहली डेट पर आप अपनी सारी कमजोरियां थोड़ी ना बता देते हैं। पहले अपनी अच्छी बातें ही सामने रखते हैं। यह झूठ नहीं है। यह सेल्फ प्रेजेंटेशन है। काम की जगह भी आप अपने रिज्यूुमे में हर कमजोरी थोड़ी लिखते हैं। आप अपनी ताकतें बताते हैं। यह रणनीति है। धोखा नहीं। मैकियावेली इससे भी आगे जाता है। कभी-कभी जो चीज पहली नजर में बेरहम लगती है, वही आगे चलकर ज्यादा दयालु साबित होती है। 


अगर आप दोनों नहीं बन सकते, तो डराया जाना बेहतर है बनिस्बत प्यार किए जाने के। उसने कहा था क्योंकि प्यार जिम्मेदारी पर टिका होता है जिसे लोग जल्दी तोड़ देते हैं जब उनका फायदा होता है। लेकिन डर एक सज्जा के डर से बना रहता है और वह जल्दी नहीं टूटता। नेपोलियन ने इस बात को फ्रांस में क्रांति के बाद लागू किया। उसकी सख्त पकड़ और सत्ता का केंद्रीकरण पहली नजर में कठोर लगा होगा। लेकिन इसने एक बिखरते देश को स्थिर कर दिया और बड़ी तबाही से बचा लिया। 


एक आज का उदाहरण सोचिए। आप किसी कंपनी में मैनेजर हैं और कोई कर्मचारी लगातार खराब काम कर रहा है। आप सख्त बात करने से बच सकते हैं। हल्कीफुल्की सलाह देकर उम्मीद लगा सकते हैं कि वह सुधरेगा। वह उस समय दयालु लगेगा या आप सीधे बात कर सकते हैं। साफ नियम तय कर सकते हैं और जरूरत पड़ी तो नौकरी से निकाल सकते हैं। यह पहली नजर में बेरहम लगेगा। पर लंबी अवधि में वो नरम रवैया टीम का मनोबल तोड़ सकता है। आपके बिजनेस को नुकसान पहुंचा सकता है और बाद में बड़ी छंटनी करनी पड़ सकती है। वो थोड़ी सी सख्ती असल में ज्यादा लोगों का भला कर सकती है। 


विंस्टन चर्चिल ने भी यही समझदारी दिखाई। जब ब्रिटेन को नाजी, जर्मनी का सामना करना पड़ा तो उसने सच्चाई को छुपाया नहीं। उसने देश से कहा खून, पसीना, आंसू और मेहनत लगेगी। यह सख्त सच था लेकिन लोगों को असली कुर्बानी के लिए तैयार किया। झूठी उम्मीद देने के बजाय मैकियावेली  का जो उसूल था


अंत सही हो तो साधन सही माने जाते हैं। उसे अक्सर लोग तोड़ मरोड़ कर समझते हैं। उसका मतलब यह नहीं था कि आप किसी भी हालत में कुछ भी कर सकते हैं। उसका मतलब था जब दांव बहुत बड़ा हो और कोई कोर्ट या सिस्टम ना हो जो आपको रोक सके तब आपको अपने काम का हिसाब नतीजों से लगाना चाहिए ना कि उसके तरीके से।


जूलियस सीजर का उदाहरण लीजिए। जब उसने रोबिकॉन नदी पार की तो रोमन कानून तोड़ा। तकनीकी रूप से देखा जाए तो यह देशद्रोह था। लेकिन उसका मानना था कि अगर उसने अपने दुश्मनों को रोका नहीं तो वे उसकी सारी मेहनत बर्बाद कर देंगे। और पीछे मुड़कर देखें तो उसके इसी कदम से पैक्स रोमानिया नाम का शांति का दौर शुरू हुआ। या अब्राहम लिंकन को देखिए जिसने सिविल वॉर के दौरान हैबियस कॉर्पस को सस्पेंड कर दिया। यह संविधान के लिहाज से सवालों के घेरे में था। लेकिन उस समय अमेरिका को टूटने से बचाने के लिए यह जरूरी कदम साबित हुआ। सच्चा मैकियावेली  सवाल यह है आप किस बड़े भले ग्रेटर गुड के लिए लड़ रहे हैं?


अगर आपके मकसद सिर्फ खुद का फायदा उठाना है तो मैकियावेली की रणनीति आपको एक धोखेबाज मैनपुलेटर बना देगी। लेकिन अगर आपका मकसद दूसरों के लिए भी कुछ अच्छा बनाना है तो वही तकनीकें आपको एक रणनीतिकार स्ट्रेटजिस्ट बना देंगी। मैकियावेली  यह भी जानता था कि आपकी साख रेपुटेशन ही सबसे बड़ा हथियार है और इसे बचाने के लिए हर बात खुलकर बताना जरूरी नहीं है। जरूरी है कि आप लगातार अच्छे नतीजे दिखाते रह। उसने लिखा लोग ज्यादातर वही देखते हैं जो आंखों के सामने हैं। ना कि वो जो पर्दे के पीछे किया गया। यानी लोग आपके तरीकों से कम और आपके नतीजों और दिखावे से ज्यादा प्रभावित होते हैं। 


आज भी यही होता है जैसे Apple अपने प्रोडक्ट्स की सिर्फ उतनी ही बातें दिखाता है। जिससे लोगों में दिलचस्पी बढ़े। सरकारें भी जानबूझकर कुछ बातें लीक करती हैं या अपनी छवि संवारती हैं। यह सारी रणनीतियां इसलिए काम करती हैं क्योंकि वह मनचाहा नतीजा देती है। ना कि इसलिए कि वह बिल्कुल पारदर्शी होती हैं। बिल्कुल। आपकी साख तब गिरती है जब लोग देख लेते हैं कि आपका धोखा सिर्फ अपने मतलब के लिए था और सबके लिए नुकसानदायक था। उसकी यह भरोसेमंद टीम ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन गई। आपके लिए भी यही सबक है। 


अपने सच्चे साथियों, पार्टनर और करीबी दोस्तों के साथ ईमानदार रहें क्योंकि उनका भरोसा ही आपकी सबसे बड़ी ताकत है और वह भरोसा सिर्फ ईमानदारी से बनता है। इसका विरोधाभास यही है। भीड़ के साथ रणनीतिक धोखा लेकिन अपने चुनिंदा लोगों के साथ पूरी सच्चाई यही कॉम्बिनेशन अपराजय होता है। आखिर में मैं यह नहीं कह रहा कि आप हमेशा झूठ बोले। मैं कह रहा हूं रणनीतिक समझ रखिए। कभी पूरी ईमानदारी फायदेमंद है तो कभी नुकसानदायक भी हो सकती है। एक परफेक्ट दुनिया में पूरी ईमानदारी सबसे सही होती। लेकिन हमारी दुनिया परफेक्ट नहीं है। इसलिए क्या कितना और कब बताना है? अगर यह आप समझ पाए तो आप अपने लिए और अपनों के लिए कुछ बड़ा बना सकते हैं। 


तो खुद से पूछिए। आप किन लक्ष्यों के लिए सच में लड़ना चाहते हैं? कौन सी रणनीतियां आपको वहां तक पहुंचा सकती है? कब थोड़ा बहुत छुपाना भी सही है? क्योंकि उससे बड़ा फायदा होगा। मैकियावेली  का आखिरी सबक बिल्कुल साफ है। सत्ता अपने आप में ना अच्छी होती है ना बुरी। वो सिर्फ उसके इरादे को बड़ा बनाती है जिसके हाथ में वह है। अगर आप इसका इस्तेमाल दूसरों को ऊपर उठाने, मदद करने या कुछ बनाने में करें तो हां मैकियावेली  की रणनीतियां भी नैतिक एथिकल बन सकती हैं। 


अगर इस लेख  ने आपकी सोच को नया नजरिया दिया हो तो  इसे उस इंसान के साथ शेयर करें जिसे यह कड़वी सच्चाई सुनने की जरूरत है, याद रखिए इस दुनिया में जहां सदाचार को अक्सर आपके हौसले को दबाने के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। थोड़ा सा मैकियावेली  सोच अपनाना ही शायद वही चीज है जो आपको जीत दिला सकती है। बिना अपनी आत्मा खोए।



दुर्वेश 

AI manthan : आधुनिक शिक्षा एक सवाल

आधुनिक शिक्षा एक  सवाल

क्या आपने कभी सोचा है कि इतिहास के सबसे तेज दिमाग वाले लोग अक्सर पारंपरिक क्लासरूम में क्यों असफल लगते हैं रिसर्च में एक दिलचस्प बात सामने आई है जो छात्र नियमों को मानने और आज्ञाकारी रहने में अच्छे होते हैं वे आगे चलकर नई चीजें बनाने में अक्सर पिछड़ जाते हैं 2014 में यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसल्वनिया की एक स्टडी ने पाया कि जो लोग गैर परंपरागत सोच रखते हैं उनके बिजनेस शुरू करने के चांस 27% ज्यादा होते हैं मुकाबले उन लोगों के जो पूरी तरह नियम मानते हैं असल में स्कूल में जो बच्चे सबसे ज्यादा तारीफ पाते हैं वही बच्चे आगे चलकर किसी इंडस्ट्री को  बदलने या कोई बड़ी खोज करने में सबसे कम सफल होते हैं


 अब यहां एक बड़ा सवाल खड़ा होता है एक सवाल जो निकलो मैकिया बेली (Niccolò di Bernardo dei Machiavelli एक प्रसिद्ध इतालवी पुनर्जागरण दार्शनिक, संगीतकार, कवि, और नाटककार थे। वे आधुनिक राजनीतिक दर्शन के संस्थापकों में से एक माने जाते हैं। उनका सबसे प्रसिद्ध कार्य "द प्रिंस" है, जो व्यावहारिक राजनीति पर एक प्रभावशाली ग्रंथ है।) भी जरूर पूछते अगर हमारी शिक्षा व्यवस्था सच में आज सोच रखने वाले और भविष्य के लीडर तैयार करने के लिए बनी होती।  तो यह नतीजा क्या इसे पूरी तरह असफल साबित नहीं करता। 

शायद यह व्यवस्था बिल्कुल वैसे ही काम कर रही है जैसे इसे करना चाहिए था हर कोई वही देखता है जो आप दिखाते हैं पर बहुत कम लोग आपको सच में जानते हैं मैकियावेली की किताब एड प्रिंस की यह लाइन हमें आज के विषय में गहराई से उतरने में मदद करेगी आधुनिक शिक्षा का छुपा हुआ मकसद  और कैसे यह हमारे दिमाग को ऐसे आकार देती है जैसा मैकियावेली तुरंत पहचान लेते। मैकी वेली जानते थे कि सबसे ताकतवर नियंत्रण वह होते हैं जो दिखते नहीं उन्होंने कहा था आम लोग हमेशा दिखावे में बहक जाते हैं और दुनिया में आम लोग ही सबसे ज्यादा हैं आधुनिक स्कूलिंग का असली कमाल यही है यह आपके सोचने के तरीके को बदल देती है जबकि ऊपर से लगता है कि यह आपको आजादी दे रही है सोचिए कैसे यह सिस्टम मैकियावेली के उस सिद्धांत को लागू करता है कि डर से राज चलाना प्यार से ज्यादा आसान होता है लेकिन डर को देखभाल की शक्ल में छुपा दिया जाता  है.


आज का स्कूल बच्चों पर खुला जोर जबरदस्ती नहीं करता बल्कि ऐसे नियम और ढांचे बनाता है जो धीरे-धीरे उनके आत्मविश्वास और सोचने की आजादी को सीमित कर देते हैं यहां मैं साफ कर दूं यह शिक्षकों पर हमला नहीं है ज्यादातर टीचर बहुत दिल से काम करते हैं और अपने छात्रों की तरक्की चाहते हैं हम जिस पर सवाल उठा रहे हैं वह है पूरा सिस्टम है।   इसका इतिहास, इसका ढांचा,  और इसका छुपा हुआ मकसद जिसे मैक्यावेली भी सत्ता बचाने का औजार मानते आज की शिक्षा प्रणाली असल में बच्चों की विकास जरूरतों या उनकी असली सीखने की क्षमता को ध्यान में रखकर नहीं बनी बल्कि  19वीं और 20वीं सदी के शुरुआत में बड़े-बड़े उद्योगपतियों ने इसे तैयार किया उन्हें ऐसे वर्कर चाहिए थे जो समय पर आए आदेश माने ऊंच-नीच को स्वीकारें और सवाल ना पूछें 1905 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रेसिडेंट चार्ल्स एलियट ने खुद कहा था हम चाहते हैं कि एक छोटा समूह पढ़ाई में ऊंचा पहुंचे और एक बड़ा समूह मजबूरी में अच्छी पढ़ाई का मौका छोड़कर कुछ मुश्किल मजदूरी वाला काम सीखे यह दो तरफ सिस्टम बिल्कुल मैकिया आवेली की सोच से मेल खाता है राज करने वालों और सेवा करने वालों के बीच साफ फर्क बनाए रखो आज की शिक्षा व्यवस्था भी यही कर रही है.


ऊपर  से यह दिखाती है कि इसमें सभी के लिए बराबरी का मौका है,  फिनलैंड हमें दिखाता है कि शिक्षा के दूसरे तरीके भी हो सकते हैं वहां की शिक्षा व्यवस्था दुनिया की सबसे अच्छी व्यवस्थाओं में गिनी जाती है वहां बच्चों को ज्यादा आजादी दी जाती है बहुत कम स्टैंडर्ड टेस्ट होते हैं और खेल आधारित पढ़ाई पर जोर दिया जाता है लेकिन जैसा कि मैकी आवेली कहते जो चीज सत्ता को फायदा देती है वह लोगों को फायदा दे ही ऐसा जरूरी नहीं उन्होंने लिखा था इंसान सीधे-सीधे अपनी जरूरतों को पूरा करने में इतने उलझे रहते हैं कि धोखेबाज को अपने शिकार कभी खत्म नहीं होते।


शिक्षा व्यवस्था इसी बात का चालाकी से इस्तेमाल करती है यह बच्चों पर अजीब अजीब नियम थोपती है जैसे चुइंगम पर बैन , सख्त ड्रेस कोड,  गलियारों में चलने के खास तरीके जिनका असल पढ़ाई से कोई लेना देना नहीं है.  ऐसे नियम बच्चों को यह सिखाते हैं कि बिना वजह के भी नियम मानो, हर आदेश को नैतिक सच मान लो.  मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि किशोर अक्सर बड़ों की बात मान लेते हैं चाहे उनके बनाए नियम बेकार ही क्यों ना हो.  


मैकियावेली इसे एक शानदार तरीका मानते , उन्होंने कहा था प्रजा को आजादी से नहीं बल्कि व्यवस्था और उद्देश्य का दिखावा करके संतुष्ट रखा जाए जब बच्चों को बिना वजह के नियम मानना सिखाया जाता है तो वे बड़े होकर भी ऐसे ही नियमों का पालन करते हैं भले ही वे उनके अपने फायदे के खिलाफ हो.


अब तुलना करो सुगाता मित्रा के होल इन द वॉल प्रयोग से जो भारत में हुआ था वहां बच्चों ने बिना किसी टीचर के कंप्यूटर चलाना और कई मुश्किल स्किल्स खुद सीख ली उन्होंने क्रिटिकल थिंकिंग और टीम वर्क में कमाल कर दिखाया।जब बच्चों को अपनी जिज्ञासा के हिसाब से सीखने दिया गया तो बच्चे बोलना सीखने से पहले मोबाइल चलाना सीख जाते है.  


वही चीजें जिन्हें मैकियावेली जैसे लोग एक आज्ञाकारी जनता में दबाकर रखना चाहते हैं सिर्फ बेमतलब अनुशासन ही नहीं शिक्षा एक और तरीका इस्तेमाल करती है वह है बाहरी तारीफ पर निर्भरता, गोल्ड स्टार , जीपीए,  टीचर की शाबाशी , टेस्ट के नंबर,  यह सब बच्चों को सिखाते हैं कि उनका महत्व दूसरों की राय से तय होता है। 


मैकियावेली ने कहा था लोग हाथ से कम आंखों से ज्यादा समझते हैं क्योंकि हर कोई देख सकता है पर छूने की हिम्मत कुछ ही करते हैं इस बाहरी तारीफ से ऐसे बड़े लोग बनते हैं जो अपनी सोच पर भरोसा नहीं कर पाते और हर फैसले में किसी ऊंचे अधिकारी से मंजूरी ढूंढते रहते हैं जब आपका आत्ममूल्य सिर्फ बाहरी रेटिंग से तय होने लगता है तो आपको आसान सी इनाम और  सजा की व्यवस्था से भी कंट्रोल किया जा सकता है.


जो लोग बचपन से ही बाहरी तारीफ पर टिके रहते हैं वे बड़े  होकर भी तारीफ के लिए ही काम करते हैं असली मकसद भूल जाते हैं ।  स्कूल में शुरू हुआ परफेक्शनिज्म आगे चलकर नौकरी में घबराहट और रिस्क ना लेने की आदत से जुड़ जाता है वही बाहरी तारीफ की लत, सैलरी , करियर और नए मौके लेने की हिम्मत तक को प्रभावित करती है.  एक ऐसा नतीजा जिसे मैकियावेली शायद जनता को काबू में रखने के लिए खुद डिजाइन करते।  


मॉनंटेसरी शिक्षा इसका एक शानदार उल्टा उदाहरण है वहां बच्चों को अपनी मर्जी से सीखने और अंदर से प्रेरित होने पर जोर दिया जाता है इस पद्धति से कई क्रिएटिव बिजनेस लीडर निकले जैसे  ग्लरी पेज और सरगे ब्रेन ,  जेफ बेजोस , जमीवेल्स। मॉन्टेसरी वही चीजें मजबूत करता है जिनसे मैक्यावेली डरते अपनी सोच पर भरोसा और सच्चा आत्मसम्मान। 


सिर्फ नियम और बाहरी तारीफ ही नहीं पारंपरिक शिक्षा एक तीसरा तरीका भी इस्तेमाल करती है कंट्रोल करने के लिए और वह है ज्ञान को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ देना जब पढ़ाई को अलग-अलग बिखरी हुई चीजों में बांट दिया जाता है तो छात्रों के लिए पैटर्न समझना और चीजों को जोड़ना मुश्किल हो जाता है यह तरीका भी बहुत हद तक मैक्यावेली की सोच जैसा है जब ज्ञान से उसका संदर्भ हटा दिया जाता है तो लोग यह नहीं समझ पाते कि सत्ता के सिस्टम कैसे काम करते हैं और बड़े मुद्दों का मिलाकर हल निकालने में भी वे पीछे रह जाते हैं।  


मैकियावेली ने कहा था कि शासक को सिर्फ युद्ध और उसकी ट्रेनिंग पर ध्यान देना चाहिए वैसे ही बिखरा हुआ ज्ञान लोगों को मानसिक रूप से कमजोर बना देता है ताकि वे अपनी पढ़ाई में सीमित रह और आगे ना सोच सकें साथ ही ग्रेडिंग कर्व क्लास रैंकिंग और ज्यादा कंपटीशन यह सोच बढ़ाता है कि सफलता बहुत कम है और किसी एक को मिले तो दूसरे को नुकसान होगा। 


मैकियावेली ने सलाह दी थी कि शासकों को अपनी प्रजा में झगड़ा बनाए रखना चाहिए ताकि लोग आपस  में ना मिले और सत्ता के खिलाफ ना खड़े हो यह कंपटीशन का माहौल एक गहरा डर भी पैदा करता है फेल होने का डर याद करो जब फेल होने का डर था या कोई बेवकूफ सवाल पूछने में शर्म आती थी या गलती होने पर सबके सामने बेइज्जती महसूस होती थी.


स्कूल में गलतियां करने पर ज्यादा सजा दी जाती है बजाय इसके कि प्रयोग करने की हिम्मत को बढ़ावा दिया जाए इसका नतीजा यह होता है कि लोग रिस्क लेने से डरने लगते हैं और सेफ रास्ते पर ही चलते रहते हैं भले ही कोई नया तरीका ज्यादा अच्छा क्यों ना हो आज की तेजी से बदलती दुनिया में यह रिस्क ना लेना इंसान के लिए नुकसानदायक है लेकिन सिस्टम के लिए यह परफेक्ट है ताकि सब कुछ वैसा ही चलता रहे 


यही वजह है कि बड़े-बड़े नए सोच वाले लोग अक्सर पारंपरिक स्कूल में परेशान रहते थे रिचर्ड ब्रसन ने 16 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया था स्टीव जॉब्स ने भी कॉलेज बीच में छोड़ा लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि एक साधारण कैलग्राफी कोर्स ने उन्हें एप्पल का खूबसूरत डिजाइन बनाने का आईडिया दिया उनका सबक था आप डॉट्स को आगे देखकर नहीं जोड़ सकते सिर्फ पीछे देखकर ही समझ सकते हैं इनोवेटर्स ने शिक्षा के तीन जाल से बचकर दिखाया बेमतलब के नियम बाहरी तारीफ पर निर्भरता और बिखरा हुआ ज्ञान।  

यह सब दिमागी कंट्रोल के वही तरीके हैं जिन्हें मैक्यावेली तुरंत पहचान जाते लेकिन खुद मैकियावेली मानते थे कि असली शिक्षा बहुत जरूरी है खासकर उनके लिए जो लीडर बनना चाहते हैं।   प्रिंस में उन्होंने लिखा था कि शासक को इतिहास पढ़ना चाहिए क्योंकि इंसानी घटनाएं पहले जैसी ही दोहराई जाती हैं


ऐसी शिक्षा जो इतिहास राजनीति और सत्ता के खेल को सिखाती है वह इंसान की सोच को मजबूत करती है जिससे सही लीडरशिप बनती है ज्यादातर कामयाब लीडर इतिहास को गहराई से समझते हैं विंस्टन चर्चिल ने अपने इतिहास के ज्ञान से ब्रिटेन को वर्ल्ड वॉर दो में रास्ता दिखाया एंजेला मरकेल ने यूरोप के इतिहास  को समझकर नए संकटों को संभाला।  


आर्मी ट्रेनिंग और लीडरशिप स्कूल जानबूझकर कठिन हालात बनाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि सच्ची लीडरशिप मुश्किलों का सामना करने से आती है ना कि उनसे बचने से मैक्यावेली को लोग अक्सर सिर्फ निर्दयी मानते हैं लेकिन अगर ध्यान से पढ़ें तो वे इंसानी मनोविज्ञान को बहुत अच्छे से समझते थे उन्होंने लिखा था इंसान दो चीजों से चलता है प्यार और डर ऐसी शिक्षा जो आपकी इमोशनल इंटेलिजेंस बढ़ाए यानी लोगों को समझने और रिश्ते बनाने की क्षमता वही असली लीडर तैयार करती है जो हर परिस्थिति को समझदारी से संभाल सकते हैं तो असली सवाल यही है  क्या आपकी शिक्षा आपके अंदर की ताकत को बढ़ा रही है या उसे दबा रही है.


क्या यह आपको फॉलोअर बना रही है या लीडर मैक्यावेली ने लिखा था शेर खुद को जाल से नहीं बचा सकता और लोमड़ी खुद को भेड़ियों से नहीं बचा सकती इसलिए इंसान को लोमड़ी बनकर जाल पहचानना आना चाहिए और शेर बनकर डराना भी आना चाहिए इसका मतलब है कि आपको अपना आत्ममूल्य अपने अंदर से बनाना होगा ताकि आप दूसरों की तारीफ पर टिके ना रहें। 


थोड़ा सोचिए स्कूल की कौन सी आदत आपको सबसे मुश्किल लगी तोड़ने में अगर किसी की राय की कोई फिक्र ना होती तो आप क्या करते अपनी सोच पर भरोसा करना चाहे सबके खिलाफ  क्यों ना जाए वही एक खास लीडरशिप की खूबी है जिसे मैकियावेली भी पसंद करते हैं।  किरयेटिव लोग अपने मन से प्रोजेक्ट  बिना किसी रेटिंग की परवाह किए तो  वही उसका सबसे बड़ा कामयाब आईडिया बनजाता है,  क्योंकि उसमें उसे किसी की तारीफ की जरूरत नहीं होती।  


सोचो अगर आप भी अपनी अंदर की आवाज पर भरोसा करने लगे तो आपकी जिंदगी कितनी बदल सकती है यह अंदर का आत्ममूल्य एक और जरूरी आदत से जुड़ा है इंटरडिसिप्लिनरी सोच ,  मैकियावेली खुद इसमें माहिर थे उन्होंने मिलिट्री राजनीति इतिहास और मनोविज्ञान को मिलाकर एक पूरा सिस्टम समझा वे यही कहते कि अलग-अलग सब्जेक्ट्स के बीच की दीवार तोड़ो।

अगर आप इतिहास पढ़ते हो तो उसकी इकोनॉमिक्स भी समझो अगर साइंस पढ़ते हो तो उसकी नैतिकता एथिक्स भी सोचो ऐसी बड़ी सोच विकसित करो जो पारंपरिक स्कूल अक्सर आपसे छुपा लेता है यह सोच आपको सिस्टम को साफ देखने और चालाकी से काम करने में मदद करती है बिग पिक्चर लर्निंग जैसी वैकल्पिक शिक्षा पद्धतियां यही तरीका अपनाती हैं वहां बच्चे अपनी रुचि के हिसाब से इंटर्नशिप करते हैं और फिर क्लास में आकर  उन अनुभवों को अकादमिक पढ़ाई से जोड़ते हैं। 


नतीजा ज्यादा ग्रेजुएशन रेट बेहतर कॉलेज रिजल्ट और पढ़ाई में असली दिलचस्पी इसके साथ ही मैकियावेली यह भी सलाह देते कि इंसान को साहसी लेकिन सोच समझकर रिस्क लेना चाहिए उन्होंने कहा था हर काम में रिस्क होता ही है समझदार लोग रिस्क से नहीं डरते बल्कि उसे तौलते हैं और फिर निर्णायक कदम उठाते हैं स्टैनफोर्ड का डी स्कूल अपने छात्रों को फेलियर रिज्यूम  बनाने को कहता है ताकि वे अपनी गलतियों से सीखा हुआ सामने रख सकें इससे उनका डर कम होता है और वे बड़े प्रोजेक्ट करने की हिम्मत पाते हैं। 


व्यक्तिगत रणनीतियों से  आगे बढ़कर मैक्यावेली यह भी मानते कि असली बदलाव के लिए समूह में जागरूकता जरूरी है इसलिए पहले सोच बनाये और फिर उस जैसी सोच के समूह खोजे, समूह वो कर गुजरता है जो  अकेले कोई नहीं कर सकता।  व्यक्तिगत बदलाव जरूरी है लेकिन संस्थागत बदलाव भी उतना ही जरूरी है जैसे प्रोजेक्ट बेस्ड लर्निंग में रट्टा लगाने की बजाय असली दुनिया की समस्याएं हल करने पर जोर दिया जाता है 


छात्र असली समस्याओं का हल ढूंढते हुए अपनी जिज्ञासा और आनंद बनाये रखे.  ऐसा मॉडल चलाने के लिए शिक्षकों को ट्रेनिंग नया पाठ्यक्रम और भरोसा देना पड़ता है.   नतीजा यह होता है कि छात्र ज्यादा क्रिएटिव और क्रिटिकल सोचने वाले बनते हैं फिनलैंड का उदाहरण बताता है कि राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था भी ऐसा कर सकती है वहां के टीचरों को ज्यादा प्रोफेशनल आजादी मिलती है और कम पढ़ाने के घंटे होते हैं जिससे वे आपस में मिलकर योजना बना सकें और नए आईडिया लागू कर सकें उनके छात्र इंटरनेशनल टेस्ट में भी अच्छा स्कोर करते हैं और अपनी खुशी और मोटिवेशन भी ज्यादा बताते हैं 


फिनलैंड का मॉडल साबित करता है कि टीचरों पर भरोसा करना सख्त नियमों से बेहतर काम करता है पर इतना ही जरूरी है असेसमेंट सुधारना पुराने टेस्ट सिर्फ याद करने और आदेश मानने को नापते हैं,  लेकिन कैलिफोर्निया के एनविजन स्कूल्स जैसे प्रोग्राम पोर्टफोलियो का इस्तेमाल करते हैं जिसमें छात्र अपने काम का पैनल के सामने बचाव करते हैं इससे असली दुनिया के काम में लगने वाली स्किल्स साबित होती हैं और कॉलेज में कमजोर बच्चों की सफलता भी बढ़ती है यह सुधार दिखाते हैं कि शिक्षा  इंसानी क्षमता को कुचलने की बजाय निखार भी सकती है.


वे साबित करते हैं कि पढ़ाई मजेदार और सख्त दोनों हो सकती है अनुशासन और रचनात्मकता एक साथ चल सकते हैं साथ ही यह भी दिखाते हैं कि सत्ता के बारे में मैकियावेली की बातें सिर्फ कंट्रोल के लिए नहीं बल्कि लोगों को सशक्त बनाने के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती हैं मैकियावेली यह मानते कि असली आजादी सिस्टम से लड़कर नहीं बल्कि खुद का सिस्टम बनाकर आती है उन्होंने लिखा था समझदार शासक को उधार की ताकत पर भरोसा नहीं करना चाहिए यह बात आपकी सोच और सीखने पर भी लागू होती है खुद से पूछिए अगर आपका सीखना सिर्फ आपकी जिज्ञासा पर आधारित होता तो कैसा होता। 


सबसे आजाद सोच वाले लोग स्कूल के ढांचे से बाहर अपने सिस्टम बनाते हैं वे सफलता को नंबर या डिग्री से नहीं बल्कि हल की गई समस्याओं , सीखी गई स्किल्स और पूरे किए गए प्रोजेक्ट से मापते हैं , सोचो आपने आखिरी बार कब कुछ सिर्फ अपनी मर्जी से सीखा था किसी मजबूरी से नहीं , साथ ही अपनी नेचुरल सीखने की स्टाइल पहचानो क्या आप सबसे अच्छा प्रयोग करके सीखते हैं , या दूसरों को सिखाकर या कुछ बनाकर।  अपनी ग्रोथ का असली तरीका ढूंढो और स्टैंडर्ड तरीकों से खुद को आजाद करो सबसे जरूरी बात अपना असली मकसद खुद तय करो समाज से लिया हुआ नहीं अगर स्टेटस इज्जत या तुलना की कोई फिक्र ना होती तो आप क्या करना चाहते। 


अक्सर हमारे सबसे गहरे सपने समाज की परतों में दबे होते हैं और यहां एक दिलचस्प विरोधाभास है जिसे मैकियावेली भी मानते हैं जितना आप सीखते हो कि सिस्टम आपको कैसे आकार दे रहा है उतना ही आप उसके कंट्रोल से बच सकते हो एक शासक को लोमड़ी बनकर जाल पहचानना चाहिए और शेर बनकर भेड़ियों को डराना चाहिए इसका मतलब यह है कि असली शिक्षा शायद पढ़ाई के कंटेंट में नहीं बल्कि सिस्टम को समझने के मौके में छुपी होती है. यह जागरूकता दिखावे के पीछे छुपे ढांचे को देख पाने की क्षमता वही चीज  है जिसे सत्ता का सिस्टम कभी नहीं चाहता कि आप विकसित करें।


मेरे अपने स्कूल के समय में मुझसे कहा जाता था कि मैं बहुत सवाल पूछता हूं मेरी जिज्ञासा परेशान करने वाली है जब मैंने असाइनमेंट से अलग सोचकर कुछ लिखा तो उसके नंबर काट दिए गए कई साल तक मुझे लगा कि मुझ में ही कोई कमी है लेकिन आज जब मैंने मैकिया वेली को पढ़ा तब समझ आया कि सवाल पूछने सीमा से आगे सोचने की मेरी आदत ही मेरी सबसे बड़ी ताकत थी.

 

वही ताकत जिसे सिस्टम दबाना चाहता था आज हम एक बहुत गहरे मोड़ पर खड़े हैं हमारी शिक्षा व्यवस्था जो औद्योगिक युग के लिए बनाई गई थी आज भी उन्हीं पुराने मूल्यों को पकड़े बैठी है जबकि आज की दुनिया में क्रिएटिविटी आजाद सोच और मिलकर काम करने की क्षमता आज्ञाकारी बनने से कहीं ज्यादा जरूरी है.


असल सवाल जो मैकियावेली भी आपसे पूछते , यही है जब आपको यह पूरा पैटर्न दिख गया है तो अब आप क्या करोगे क्या आप बस ग्रेड और तारीफ के पीछे भागते रहेंगे वही चीजें जो अब आपकी वयस्क जिंदगी में नए नाम से चल रही हैं क्या आप नियम मानते रहेंगे बिना उनकी वजह पूछे क्या आप गलतियां करने और मजाक का डर पाले रहेंगे या आप इन आदतों को एक सीखे हुए रिएक्शन की तरह पहचान कर इन्हें बदलेंगे साहस रिस्क लेने और जिज्ञासा से मैकियावेली की सबसे गहरी बात  यही है कि असली व्यक्तिगत ताकत तभी आती है जब आप सच्चाई को साफ देख पाते हैं। 


उन्होंने चेतावनी दी थी लोग आंखों से ज्यादा समझते हैं हाथ से कम लेकिन जो लोग दिखावे से आगे महसूस कर सकते हैं वही समाज में असली बदलाव ला सकते हैं अगर आप खुद को इन पैटर्न में पहचानते हैं और इससे आजाद होना चाहते हैं तो इन विचारों को किसी और के साथ भी बांटें एक सिस्टम जो इंसानी संभावनाओं को दबाने के लिए बना है उसके खिलाफ सबसे बड़ी बगावत यही है उन संभावनाओं को दूसरों में जगाना मैकिया बेली ने सदियों पहले समझ लिया था और यह बात आज भी सच है असली ताकत अंधी आज्ञाकारिता से नहीं आती बल्कि अपनी सोचने की शक्ति से आती है यही एक स्किल स्वतंत्र सोचने की क्षमता आपको हर तरह की चालबाजी से बचा सकती है और यही तोहफा है जिसे मैकियावेली भी सबसे ज्यादा सम्मान देते हैं



दुर्वेश

Tuesday, July 1, 2025

AI के साथ मंथन : लोकतंत्र सिर्फ एक सभ्य तानाशाही है

 

AI (artificial intelligence )के साथ मंथन 

लोकतंत्र का काला सच  

लोकतंत्र सिर्फ एक सभ्य तानाशाही है 


क्या वोट डालना सच में आजादी का काम है या बस एक दिखावटी आजादी है जो असल में आपकी चुपचाप गुलामी को इजाजत देती है। असल मे जिस सिस्टम को हम इंसानी सभ्यता की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि मानते हैं वो असल में सिर्फ आज्ञाकारिता है लेकिन अच्छे दिखावे के साथ। इस बात को समझने के लिए इस लेख को पूरा पढ़ना पड़ेगा


दशकों से लोकतंत्र पर जो भरोसा था वह अब भ्रम में बदल गया है। जो लोग, वोट की ताकत से दुनिया बदलने का विश्वास रखते थे, उन्होंने अब सोचना शुरू दिया है कि क्या आम लोग सच में समझदारी से राजनीतिक फैसले ले सकते हैं। केसे कोई नेता झूठे चुनावी वादों के भ्रम और धुरवीकरन के सहारे जनता को भ्रमित कर जीत पर जीत हासिल कर सकता हैं । सालों साल सत्ता पर काबिज रह सकता है। दुनिया को खत्म होने की हद तक ले जा सकता है।


यह टूटन गहरी है, लेकिन नई नहीं थी, लगभग 2000 साल पहले प्लेटो ने इसे आते हुए देख लिया था जब उनके गुरु सुकरात को एक लोकतांत्रिक सभा ने मौत की सजा दी तो प्लेटो को न्याय नहीं दिखा उन्हें बहुसंख्यक शासन का खतरा दिखा।


उनका निष्कर्ष डरावना था की लोकतंत्र अत्याचार को खत्म नहीं करता बस वह उसे छुपा देता है आज की मनोविज्ञान की रिसर्च प्लेटो की चेतावनियों को और भी गहरा बना देती है 1950 के दशक में मनोवैज्ञानिक सोलमन ऐश ने दिखाया कि लोग अपने साफ नजरिए को भी छोड़ देते हैं अगर एक पूरा ग्रुप उनसे असहमत हो 75% लोगों ने साफ गलती को सही मान लिया सिर्फ इसलिए ताकि वे अकेले ना पड़े जाए।


अगर हम खुद पर इतना भरोसा नहीं कर सकते तो हम लाखों अनजान लोगों से कैसे उम्मीद करें कि वे अच्छे नेता चुनेंगे पर बात यहीं नहीं रुकती, वैज्ञानिकों ने जब राजनीतिक समर्थकों को उन्हें उनके पसंदीदा नेता की गलतियां दिखाई गई,  तो दिमाग का सोचने वाला हिस्सा शांत रहा लेकिन भावनाओं से जुड़ा हिस्सा तेजी से सक्रिय हो गया उनका दिमाग ना सिर्फ सच्चाई को नकार रहा था बल्कि खुद को इसके लिए इनाम भी दे रहा था लोकतंत्र इन मानसिक कमजोरियों की वजह से ही फलता फूलता है। 


लोकतंत्र की असली चतुराई  इस बात में नहीं है कि वह सत्ता कैसे बांटता है बल्कि इसमें है कि वह असली सत्ता को कैसे छुपाता है खुले तानाशाहों की तुलना में जहां पुलिस सेंसरशिप और हिंसा होती है लोकतंत्र नरम लगता है इंसानी लगता है न्यायपूर्ण लगता है और यही वह धोखा है जिसे प्लेटो ने सबसे बड़ा खतरा बताया था। 


सबसे असरदार नियंत्रण वही होता है जो महसूस ही नहीं होता वो लगता है जैसे यह आपकी अपनी पसंद हो आधुनिक लोकतंत्र गुस्से और असहमति को कुछ रस्मी कामों में बदल देता है जेसे अहिंसक विरोध प्रदर्शन, चुनाव याचिकाएं, यह सब आपको भावनात्मक राहत देते हैं लेकिन सिस्टम नहीं बदलते। 


आपको लगता है, कि आपकी आवाज सुनी गई, आपको लगता है कि आप शामिल हैं। लेकिन असली ढांचा जैसा का तैसा रहता है, आपको लगता है कि आप सिस्टम से लड़ रहे हैं जब आप किसी नेता को वोट से हटा देते हैं लेकिन हकीकत में आप उसी सिस्टम को और मजबूत कर रहे होते हैं जो आपके विकल्पों को सीमित करता है। प्लेटो ने चेताया था अगर आप राजनीति में हिस्सा नहीं लेते तो आप ऐसे लोगों द्वारा शासित होते हैं जो आपसे कम समझदार हैं। 


लेकिन लोकतंत्र एक कदम आगे चला गया वो आपको यकीन दिलाता है कि आप ही ने उन कमजोर नेताओं को चुना था कि यह सब, आपकी अपनी पसंद थी और आपकी पसंद का नेता या पार्टी गलत केसे हो सकती है, यह भ्रम नशे जैसा है, लोकतंत्र मन को बहलाता है यह वादा करता है कि आप शासन करेंगे, मिलकर फैसले लेंगे समझदारी से चर्चा करेंगे लेकिन इंसानी दिमाग इतनी जटिलता के लिए बना ही नहीं है। 


हमें चाहिए सादगी, यकीन और भावनात्मक साफगोई और यहीं से लोकतंत्र खुद को खोने लगता है। प्लेटो ने इस क्रम को पहले ही देख लिया था लोकतंत्र बहुत ज्यादा विकल्प देता है बहुत ज्यादा जानकारी बहुत सारे फैसले इससे दिमाग उलझ जाता है और जब इंसान उलझन में होता है तो उसे सच्चाई नहीं साफ-साफ जवाब चाहिए होते हैं।  यहीं से मैदान में आता है,  जननेता- एक ऐसा व्यक्ति, जो सब कुछ आसान बना देता है जो आपको बता देता है कि दोष किसका है। जो कहता है आप मत सोचिए,  मैं सोचूंगा। 


न्यूरो साइंस भी यही कहता है जब हमारा दिमाग ज्यादा जानकारी और अनिश्चितता से भर जाता है तो सोचने समझने की शक्ति धीमी पड़ जाती है तब भावनाएं हावी हो जाती हैं हम सोचने की जगह बस प्रतिक्रिया देने लगते हैं और जो भी हमें इस मानसिक थकावट से राहत देता है वे उस ओर खींच जाते हैं। 


वेनेजुएला इसका ताजा उदाहरण है ह्यूगो चावेज ने सत्ता, तख्ता पलट से नहीं ली उसे बहुमत से चुना गया था। उसने लोगों से वादा किया कि वह सारी जटिलताओं का हल निकालेगा उसने भावनात्मक राहत दी, और जब तक जनता को समझ आया कि उन्होंने क्या खो दिया है।  तब तक वह मानसिक रूप से इतना जुड़ चुके थे कि पीछे लौटना लगभग नामुमकिन हो गया। दुनिया भर में यही पैटर्न दोहराया जा रहा है लोकतंत्र को कोई बंदूक की नोक पर खत्म नहीं कर रहा है लोग खुद उसे वोट से खत्म कर रहे हैं। 


यह ऐसे नेताओं को जन्म देता है जो चुनाव जीतने में माहिर हों , ना कि शासन चलाने में। चुनाव जीतने वाले गुण हैं आत्मविश्वास, आसान भाषा, भावनात्मक जुड़ाव लेकिन अच्छा शासक बनने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती है वो है ,  गहराई , संतुलन और जटिल समझ, वो इन नेताओ मे अक्सर इनसे उलट होती है। 

 

प्लेटो ने इसे एक जहाज की कल्पना से समझाया था। सोचिए एक जहाज पर सवार लोग तय करें कि उसे कौन चलाएगा। असली नाविक जो सितारों और नक्शों की मदद से दिशा समझता है, पर  उसे खुद भी अपनी बात में थोड़ा संकोच होता है क्योंकि सच्चाई हमेशा सीधी नहीं होती।  वहीं एक चालाक तेजतर्रार शख्स कहता है, सब कुछ आसान होगा रास्ता भी आसान और शराब भी फ्री।


सोचिए लोग किसे चुनेंगे और वह जहाज कहां जाएगा!


हम ब्रेन सर्जरी पर वोट नहीं करते, पुल कैसे बने इस पर वोट नहीं करते, वहां हम विशेषज्ञों की बात मानते हैं लेकिन राजनीति में आत्मविश्वास ज्ञान और विशेषज्ञता से जीत जाता है क्यों?


क्योंकि असली विशेषज्ञ कभी पक्के शब्दों में बात नहीं करते वह कहते हैं, यह निर्भर करता है, वह हर चीज को कई पहलुओं से देखते हैं लेकिन हमारा दिमाग इस अस्पष्टता को पसंद नहीं करता।  हम सीधा स्पष्ट जवाब चाहते हैं, और इसी वजह से हम असली नाविक को नजरअंदाज करके उस जहाज को डुबोने वालों को चुन लेते हैं। 


यह कोई सिस्टम की गलती नहीं है यही सिस्टम है। 


अब यह और भी चालाक हो चुका है प्लेटो ने कभी डिजिटल युग की कल्पना नहीं की थी लेकिन उनकी गुफा की कथा जहां लोग अंधेरे में दीवार पर पड़ती परछाइयों को सच्चाई समझते हैं आज की सच्चाई से बिल्कुल मेल खाती है,  आज भी हम परछाइयां ही देख रहे हैं फर्क बस इतना है कि अब यह परछाइयां आपके लिए बनाई गई हैं आपका सोशल मीडिया फीड, जो सिर्फ जानकारी नहीं दे रहा वो आपकी सोच को गढ़ रहा है। 


एल्गोरििदम सीख रहे हैं कि आप किससे डरते हैं, आप क्या चाहते हैं, आपकी कमजोरियां क्या हैं और फिर वह आपको वही दिखाते हैं जो आप देखना चाहते हैं। इसका नतीजा हर इंसान के लिए एक अलग सच्चाई,  पक्के यकीन के साथ बनी झूठी दुनिया। आपको लगता है कि आप पहले से ज्यादा जागरूक हैं जबकि असल में आप पहले से ज्यादा चालाकी से कंट्रोल किए जा रहे हैं। अब AI  चालित सूचना तंत्र , लोगों के मनोविज्ञान को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना सीख चुकी है। 


जो लोग चिंतित थे उन्हें डरावनी बातें दिखाई जाती है,  जो गर्व से भरे थे उन्हें तारीफें दी,  जो अकेले थे, उन्हें किसी ग्रुप का हिस्सा महसूस कराया गया। यह कोई आम प्रचार नहीं था यह बहुत ही निजी स्तर पर किया गया मानसिक नियंत्रण होता है और यह बखूबी काम कर रहा है।


नतीजा, ऐसा राजनीतिक बंटवारा जो पीढ़ियों से नहीं देखा गया था हर पक्ष को लगता है कि वही समझदार है, वही सही है, और दूसरा पक्ष पागल है,  गुमराह है,  लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों पक्ष एक जैसे तथ्य भी नहीं देख रहे।  वे दो अलग-अलग दुनियाओं में जी रहे हैं और सबसे डरावनी बात आप अब भी सोचते हैं कि आप इस सबसे अलग हैं। 


अब फैक्ट चेकिंग लोगों की सोच नहीं बदलती और बहसें प्रायोजित होती हैं। जब आप किसी के बनाए गए निजी नजरिए को चुनौती देते हैं। तो उनका दिमाग खुद ब खुद रक्षा करने लगता है साइकोलॉजिस्ट इसे बैक फायर इफेक्ट कहते हैं। जितना ज्यादा आप किसी को सही बातें दिखाते हैं पर अगर वो उसकी मोजूदा सोच से मेल नहीं खाती , तो वह अपनी पुरानी सोच में और गहराई से जड़ पकड़ लेता है।  


प्लेटो ने भी यह बात पहले ही समझ ली थी उन्होंने कहा था वे उससे नफरत करेंगे जो उन्हें सच्चाई बताएगा आज के लोकतंत्र में सच्चाई को बैन नहीं किया जाता उसे दबा दिया जाता है, शोर, ध्यान , भटकाने वाली चीजें और सोशल मीडिया की असहजता के नीचे उसे आसानी से दबा दिया जाता है। कोई अप्रिय सच बोलिए और देखिए आपकी पहुंच कैसे धीरे-धीरे गायब हो जाती है। 


वजह सरकार नहीं रोकती एल्गोरिद्म रोक देता है अब जरा वाइमर रिपब्लिक को देखिए वहां लोकतंत्र था चुनाव होते थे बोलने की आजादी थी अखबार खुले थे लेकिन जैसे ही संकट आया वहां के लोगों ने लोकतंत्र नहीं बचाया तानाशाही को चुना। 


क्यों? 


उन्होंने अत्याचार को पसंद नहीं किया था,  बल्कि आजादी बहुत भारी लगने लगी थी जब जीवन में अराजकता आ जाती है तो इंसानी दिमाग साफ-साफ आदेश ढूंढता है आसान जवाब चाहता है कोई आवाज जो कहे मैं संभाल लूंगा।

 

हिटलर ने सत्ता छीनी नहीं थी उसे चुना गया था क्योंकि उसने लोगों को जटिलता से भावनात्मक राहत दी यह कोई बीती हुई कहानी नहीं है यह एक आईना है।  जैसे रोम में हुआ था,  जब गणराज्य कमजोर हुआ,  नेताओं ने यह सीखा कि भीड़ को लुभाना तमाशा दिखाना सच्चे शासन से ज्यादा असरदार होता है इसलिए खेल कानूनों की जगह लेने लगे। 


जूलियस सीजर ने लोकतंत्र को तबाह नहीं किया उसने बस लोगों को वहीं दिया जो वह मांग रहे थे और उसी ने उस सिस्टम को मार डाला जिसने वह सब मुमकिन बनाया था आज के पॉपुलिस्ट नेता भी वही स्क्रिप्ट पढ़ रहे हैं हर चीज का वादा करो किसी ना किसी पर  दोष डालो,  तमाशा पेश करो और धीरे-धीरे सत्ता का शिकंजा कसते जाओ। 


हर राजनीतिक सिस्टम कुछ मिथकों पर चलता है फर्क सिर्फ इतना है कि वह मिथक जानबूझकर स्थिरता के लिए गढ़े गए हैं या बिना सोचे समझे हमारे अंदर भरे गए हैं ताकि हम कभी सवाल ना पूछे। 


लोकतंत्र के भी कुछ बहुत ताकतवर मिथक हैं जेसे हर एक आवाज बराबर मायने रखती है, चुनाव से भविष्य तय होता है, नेता जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन जब यह विश्वास हकीकत से टकराते हैं तो दिमाग में कॉग्निटिव डिसोनेंस यानी मानसिक तनाव पैदा होता है।  लोग इन मिथकों को छोड़ते नहीं वह किसी पर दोष मड़ना शुरू कर देते हैं।  जेसे गलती पार्टी की है, गलती मीडिया की है। सिस्टम टूटा नहीं है हमें बस इसे और अच्छे से करना होगा और यही चक्र चलता रहता है।


उधर असली सत्ता धीरे-धीरे हाथ से फिसल चुकी होती है चुने हुए नेता सिर्फ संस्कृति और पहचान की बहसों में उलझे रहते हैं जबकि असली फैसले अनचुने संस्थानों द्वारा लिए जाते हैं जैसे सेंट्रल बैंक, रेगुलेटरी एजेंसियां जेसे RBI, IT, और अंतरराष्ट्रीय संगठन जेसे IMF,WHO,WTO ।


यही है लोकतंत्र का पैराडॉक्स जो राजनीति दिखती है वह और ज्यादा शोर मचाती है और ज्यादा बंटी हुई होती है जबकि असली  शासन चुपचाप दूर कहीं पीछे चलता रहता है। जहां आपकी कोई पहुंच नहीं और आप फिर भी वोट डालते रहते हैं ना कि इसीलिए कि इससे कुछ बदलता है बल्कि इसीलिए कि आपको लगता है शायद इस बार कुछ बदलेगा।


यही इस सिस्टम की चालाकी है वह आपको यकीन दिलाता है कि आपकी गुलामी ही आपकी आजादी है कि आज्ञा पालन ही आत्मनिर्णय है कि इस बार कहानी कुछ अलग होगी प्लेटो पूरी तरह सही नहीं थे लेकिन वह पूरी तरह गलत भी नहीं थे। 


लोकतंत्र से तानाशाही की ओर गिरना जरूरी नहीं है, वह रास्ता हमेशा खुला रहता है लोकतंत्र मे मानसिक अपील नकारा नहीं जा सकती लेकिन जैसा कि प्लेटो ने चेतावनी दी थी।  इसकी कमजोरियां सिर्फ सिद्धांत नहीं है वह इंसानी स्वभाव में छुपी होती हैं अगर हम यह कड़वी सच्चाई मान भी लें कि लोकतंत्र आजादी के नाम पर एक सूक्ष्म नियंत्रण का जरिया बन गया है तो एक बड़ा सवाल सामने आता है फिर विकल्प क्या है।

 

प्लेटो ने दर्शन शास्त्री राजा का विचार रखा था ऐसे नेता जिन्हें लोकप्रियता के लिए नहीं बल्कि बुद्धिमत्ता और चरित्र के लिए चुना जाए लेकिन इस आदर्श के साथ भी मुश्किलें हैं कौन तय करेगा कि कौन बुद्धिमान है कैसे सुनिश्चित करें कि सत्ता उन्हें भ्रष्ट ना कर दे कैसे रोके कि वह आम लोगों की जिंदगी से कट ना जाए,  प्लेटो खुद इन सवालों को समझते थे उनका दर्शन एक राजनीतिक योजना नहीं था बल्कि एक दर्पण था जो हमें दिखाता है कि हम सत्ता और शासन के साथ कैसा संबंध रखते हैं उनका उद्देश्य यह था कि हम खुद से पूछें कैसे इंसान हमें बनना होगा। 


ताकि कोई भी सिस्टम हमारे भले के लिए काम कर सके तो अब जब हम यह असहज सच्चाई जान गए हैं कि लोकतंत्र असल में हमें मानसिक आराम देता है ना कि असली शक्ति।


तो हम क्या करें?


प्लेटो का जवाब था राजनीति से भागो नहीं बल्कि जागो। गुफा की कथा में वह दार्शनिक जो परछाइयों से बाहर निकलकर सच्चाई की रोशनी देखता है वह वहीं नहीं रुकता वह लौटता है गुफा में,  दोबारा जाता है सिस्टम की सेवा के लिए नहीं बल्कि इस जिम्मेदारी के साथ कि जो सच्चाई उसने देखी है उसे दूसरों तक पहुंचाए भले ही लोग उसका विरोध करें उसका मजाक उड़ाएं या हमला करें फिर भी वह कोशिश करता है यही हमारी भी जिम्मेदारी है। 

 

हम एक अधूरे सिस्टम का हिस्सा बने लेकिन खुली आंखों से,  बंद आंखों से नहीं।  हमें वोट देना है,  बोलना है,  कदम उठाना है,  लेकिन इस समझ के साथ कि हमारे व्यवहार को कैसे आकार दिया जाता है। 


हमें अब लोकतंत्र से वह उम्मीदें छोड़नी होंगी, जो कभी उसमें थी ही नहीं-  कि यह सबसे न्यायपूर्ण होगा कि यह हमेशा समझदार नेताओं को चुनेगा या कि हर वोट  बुद्धिमानी से डाले जाते हैं इस सच को जानना है तो, विधान सभा और लोक सभा के जन प्रतिनिधियों पर नजर डालिये जिसे जनता ने लाखो वोटो से जिताकर भेजा है , इनमे से अधिकाँश या तो क्रिमिनल बैकग्राउंड से है या फिर एकमात्र गुण अपने आकाओ की जी हुजूरी है. 543 की लोकसभा में मात्र 40 -50 ही सारग्रभित बहस करते नजर आते है , बाकी का क्या ?


राजनीतक संगठन खुद कितने लोकतांत्रिक और पारदर्शी है। उन्होंने जीतने के लिए जो पैसा खर्च किया, उसका हिसाब कभी उन्होंने उस जनता को दिया? अगर नहीं तो फिर कैसा और किस लोकतंत्र की बात कर रहे है। आज देश में लोकतंत्र को चलाने के लिए शराब-माफिया , भू-माफिया, मेडिकल माफिया, टेक्सचोर पूजीपति, कमीशनएजेंट और ठेकेदारों बड़ी भूमिका है, राजनैतिक दलों को ये भरपूर मदद करते है और उससे मनचाहा लाभ लेते है, आम जनता तो भीड़ है और नेता भीड़ से खेलना जानता है


लोकतंत्र को हमें वैसा देखना सीखना होगा जैसा वह वास्तव में है एक ऐसा ढांचा जो सामूहिक मनोविज्ञान को संभालने के लिए बना है ना कि उससे ऊपर उठने के लिए। लोकतंत्र जनता की चेतना को ऊपर पर नहीं उठाते बल्कि उसकी भावना को भड़काते है। भावनात्मक भाषण कैसे आपके फैसले पर हावी हो जाते हैं। तब आप जान जाते हैं कि आपकी राजनीतिक सोच कहीं ना कहीं कबीलाई पहचान से बन रही है।


जब आप देख लेते हैं कि विरोध को भी कैसे सिस्टम चुपचाप निगल लेता है तो आप सोच सकते हैं,  कि असली बदलाव की रणनीति क्या हो सकती है।  आप अब भी वोट डाल सकते हैं आवाज उठा सकते हैं, हिस्सा बन सकते हैं।  लेकिन इस भ्रम के बिना कि सिर्फ यही सब कुछ बदल देगा। 


यह विमुख होने की बात नहीं है यह परिपक्वता की बात है जैसे, लोकतंत्र भी अपने नागरिकों की मानसिकता का आईना है अगर यह सच है तो हमें एक और कड़वी सच्चाई का सामना करना होगा हमारा राजनीतिक तंत्र इसलिए टूटा हुआ नहीं है क्योंकि लोग बुरे हैं बल्कि इसलिए क्योंकि यह हमारे मानसिक सीमाओं की असहजता से बचने की प्रवृत्ति और सच की जगह आसान जवाब पसंद करने की आदत को दिखाता है। 


हम जागरूक दिखना  चाहते हैं बिना गहराई से सीखे, हम आजादी चाहते हैं बिना जिम्मेदारी उठाए हम नैतिक स्पष्टता चाहते हैं। 


लोकतंत्र हमें एक एहसास देता है जैसे हम सब कुछ नियंत्रित कर रहे हो यह हमें यह भरोसा दिलाता है कि हमारे फैसले समझदारी से भरे हैं हमारे नेता जवाबदेह हैं और हमारी आवाज में ताकत है यह हमें नियंत्रण का मंच देता है जबकि असली फैसले वहां लिए जाते हैं जहां हमारी नजर नहीं पहुंचती इस सच्चाई को समझना मायूसी नहीं है बल्कि यही असली आजादी की शुरुआत है जब आप लोकतंत्र से ज्यादा की उम्मीद करना छोड़ देते हैं तभी आप इसका सही इस्तेमाल करना सीखते हैं। 


आप इसे समझदारी से नेविगेट कर सकते हैं आप पहचान सकते हैं कब आपको भ्रमित किया जा रहा है।  आप सवाल उठा सकते हैं जब जटिल बातों को जानबूझकर आसान दिखाया जा रहा हो आप बोल सकते हैं भले ही आपकी बात से कुछ ना बदले क्योंकि जागरूक होकर बोली गई बात का मूल्य सिर्फ असर में नहीं , आत्मा में होता है। 


आज वही ताकतें जिन्होंने जर्मनी के बीमार गणराज्य को तोड़ा, वेनेजुएला की लोकतांत्रिक संस्थाओं को गिराया और दुनिया के कई देशों में आजादी को मिटाया वही ताकतें आज आपके देश में भी सक्रिय हैं आपकी सोच को एल्गोरिद्म ढाल रहे हैं भावनात्मक थकान आपके विवेक को  कमजोर कर रही है।  करिश्माई नेता उभर रहे हैं जो आपको राहत दे रहे हैं,  पर सच छिपा कर ।


लोग इन सबको हां कह रहे हैं, नफरत से नहीं थकावट से , वे थक गए हैं,  सोचने से थक गए हैं,  चुनाव करने से थक गए हैं,  जिम्मेदारी उठाने से,  और यही वह पल है जिससे प्लेटो डरते थे। 


सवाल यह नहीं है कि क्या लोकतंत्र एक सभ्य तानाशाही बन रहा है सवाल यह है कि क्या आप अब भी सोए रहेंगे या जागेंगे यह लड़ाई निराशा और उम्मीद के बीच नहीं है।  यह चुनाव है बेहोशी और जागरूकता के बीच।  2000 साल पहले प्लेटो ने देखा था कैसे एथेंस के लोग सोक्रेटीज की आवाज दबा देते हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि वह  उन्हें असहज कर देता था। 


उन्होंने देखा कि जब लोग सच्चाई से ज्यादा दिलासा चाहते हैं तो तानाशाही टालना मुश्किल हो जाती है। गुफा आज भी है अब वह डिजिटल बन गई है और उसमें दिखने वाली परछाइयां अब ऐसे एल्गोरिदम बना रहे हैं जो आपकी पसंद के हिसाब से आपको सच का भ्रम दिखाते हैं। लेकिन काम अब भी वही है पीछे मुड़ो इन झूठी तस्वीरों पर सवाल उठाओ उस रोशनी की तरफ बढ़ो चाहे वो चुभती हो, क्योंकि परछाइयां सुंदर हैं पर वह असली नहीं है और सिर्फ सच्चाई ही आजाद कर सकती है।  प्लेटो की सीख यह नहीं थी कि राजनीति से भागो बल्कि यह थी राजनीति में दिमाग खोलकर  प्रवेश करो। 


जिस लोकतंत्र पर सवाल ना उठाया जाए वह बचाने लायक नहीं और जो नागरिक खुद पर सवाल ना उठाए वह सच में आजाद नहीं, क्योंकिआजादी कभी आराम नहीं देती वह हमेशा यह मांग करती है कि हम वह भी देखें जिसे देखने से डरते हैं और फिर कुछ करें यह चुनाव अब भी तुम्हारा है। 


 

दुर्वेश