हमारे यंहा सार्वजनिक का मतलब उसे बेशर्मी की हद तक इस्तेमाल करने का अधिकार और उसके रखरखाव का ठेका किसी ओर का ( यानी भगवान भरोसे). पानी के स्रोत चाहे वो नदी या तालाब का हो या भूमीगत हो सार्वजनिक होता है. इसलिये जिसे जेसा मौका मिला उसने उसका मनमर्जी से इस्तेमाल किया. उसको प्रदूषित करने मे हमने कोइ कसर नही छोडी. हमने बेशर्मी की हद तक उसे बरबाद किया है.
बुरा हो इन बिजली चलित पम्पों का जिन से हमने भूमीगत जल स्रोतों का बेहिसाब बेदर्दी से दोहन किया और एश की हद तक उसे बरबाद होने दिया. बुरा हो इन आधुनिक कमोडों का जो एक व्यक्ति के मल-मूत्र को बहाने के लिये कम से कम दिन भर में 30 से 40 लीटर पानी बरबाद करता है. यह सच है की इन आधुनिक कमोडों के कारण अब हम घर मे ही मल मूत्र विसर्जित करने के बाबजूद घर को बदबू रहित रख सकते है. पर उसकी कीमत में हम किसी नदी तलाब या भूमीगत जल को जहर मे बदल रहै होते है. अपना मल मूत्र नदीयों तालाबों और भूमीगत जल स्रोतों मे मिलाकर जो फ्री था उसे जहर बना दे रहे होते है. सफाइ का एसा पागलपन की हर शहर हर दिन टनों साबुन नदीयों और तालाबों में बहा रहा है. साफ गोरी काया के लिये एसा का एसा पागल दिवानापन मिसाल हम इंसानों मे ही मिलेगी.
जब तक हमसे असली कीमत वसूल ना की जाये उसके महत्व का हम अंदाज नही लगा पाते. यह गलत फहमी है की प्रकृति ने हमे हवा पानी और रोशनी मुफ्त दे दी है. इसका पता तो तब चलता है जब वो हमारे पास ना हो. क्या रेगीस्तान मे पानी उसने मुफ्त दिया है?
जब तक हमसे असली कीमत वसूल ना की जाये उसके महत्व का हम अंदाज नही लगा पाते. यह गलत फहमी है की प्रकृति ने हमे हवा पानी और रोशनी मुफ्त दे दी है. इसका पता तो तब चलता है जब वो हमारे पास ना हो. क्या रेगीस्तान मे पानी उसने मुफ्त दिया है?
अब बेक्टीरिया वाइरस का एसा भय की हम दिनभर हाथों को धोते रहते है. इस डर से की अगर बिना धोये कुछ खाया या पिया तो हमारा अंत. दिन भर TV यही सब दिखाता रहता है और हम यह सब देखकर साबुन एंटी सेप्टिक लोशन इस्तेमाल कर रहे है. हम भूल गये की हमारे स्वास्थ का राज हमारा अपना इम्यून सिस्टम है ना की साबुन और एंटीसेप्टिक लोशन और दवाइयां.
हम यह भी भूल गये की हमारे आसपास दिखाइ देने वाले पेड पौधे और प्राणी जगत के होने की वजह दिखाइ ना देने वाला एक भरापूरा जीता जागता माइक्रो जीव- बेक्टीरिया, फंगस, वाइरस से भरा संसार है जो हर समय ह्म सब को चारों ओर से घेरे हुये है यह हमारे अदंर है हमारे बाहर है उसमे से कुछ हमारे दोस्त है और कुछ दुशमन. हमारा इम्यून सिस्टम इन्हे पहचानता और रात दिन इन पर निगाह रखता है जो हमारे दोस्त है उन्हे फलने फूलने देता है और जो दुश्मन है उन्हे शरीर से मार भगाता है.
माना की हमारा इम्यून सिस्टम जब किसी कारण से overburden हो जाता है तो हमे दवाइयों से मदद मिलती है, पर अगर इस मदद के हर समय मोहताज रहने लगे और अपने इम्यून सिस्टम पर भरोसा ना रहे, तो यह गंभीरतम मामला हो जाता है. बाजारवाद तो यही चाहता है की हमे अपने पर भरोसा ना रहे. हमारा डर इस बजार को फलने फूलने मे मदद जो करता है.
साफ सफाइ का अपना महत्व है पर इसे पूरे प्रपेक्ष मे देखना चाहिये क्योंकी हमारे घर के साफ होने का कोइ मतलब नही रह जाता अगर हमारा पास पडोस गंदगी का अबांर हो, हमारी करनी से नदी तलाब बरबाद हो रहे हों.
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