दिपावली
के शुभ अवसर पर आपको एवं आपके परिवार को शुभकामनायें .... "
GOD Exists. " आपके इस लेख पर मै कुछ कहने की
गुस्ताखी कर रहा हू...मतभेद या विचार भेद होने पर आपको इस दिवाली पर मुझे माफ करने
की ताकत... वो आपको दे जो हम सब का कारक है....;-)
चलो
पहले गोड या इश्वर की परिभाषा तय कर लें. एक आसान सी परिभाषा ... "
वो जो हम सब का कारक है " हो सकती है पर इससे बात नही
बनी ना, क्योंकी इसमे वो जादुई करिशमा नजर नही आ रहा है जो
हम एक इश्वर मे देखना चाहते. इसलिये इसमे थोडा मसाला जोडते है, जेसे वो जो हमारे पाप और पुण्य़ का हिसाब रखता है और उसकी सजा और इनाम के
तोर पर स्वर्ग और नर्क भेजता है. जिसकी नजरों से कुछ भी छुपा नही है. जो सब को देख
रहा है, चाहे वो किसी गहरी गुफा मे छुपा हो या फिर हजार
दिवारों से घिरे कमरे मे छुपा हो, वो सब को देख रहा है, सब
के किये का हिसाब रख रहा है. जो चर और अचर का मालिक है. जो किसी को भी रंक से
बादशाह और बादशाह से रंक बना देता है. जो मेरे और तेरे मे फर्क करता हो. वो
जो मदिंरों और मस्जिदों मे मिलता है. जिसके दर्शन के लिये लोग लम्बी लम्बी लाइन
लगाये खडे नजर आते है. उसने ही पवित्र धर्म ग्रंथ लिखे है या लिखवाये है.
जिसके नाम पर हम दूसरे का खून तक कर देने के बाद उफ तक नही करते. कम से कम मुझे तो
बचपन से यही सब समझाया गया है. किसी ने उसे पिता समझा तो किसी ने मालिक तो किसी ने
जज किसी को वो निर्मोही नजर आया.
उसको
समझने का दावा करने वाले लोग भी कुछ दूर तक ही अपनी अध्यात्मिक और वैज्ञानिक सोच
को ले जा पाते है ....उसके आगे ..? जो अनंत है उसका अंत आप
केसे पा सकते है. इसलिये वो यह कहकर की मै ही इश्वर हू या मे ही इश्वर का बेटा हू
या में उसका पेगम्बर हू ...या फिर हर कण मे इश्वर है और उसे देखने और पाने का आसान
गुरूमंत्र मेरे पास है एसा कहकर वो इसे power game बना देते है और इस ताकत
की कमान वो अपने पास रखते है.
आम
जनता ..उसका क्या...
आम
आदमी को रोजमर्रा की परेशानियों का हल इश्वर मे दिखाई देता है. उसे बस कोइ थोडी सी
आस दिखा दे वो लाइन लगाये खडा नजर आता है. उसके लिये तो वही इश्वर बन जाता है जो
उसे मुसीबत से बचा सके, समय
पर काम आ सके. वो जब बिमार होता है तो उसे इश्वर याद आता है जब मुसीबत में होता है
तो उसे इश्वर याद आता है. जब खुश होता है तो भी उसके हाथ उसकी इबादत में उठ जाते
है. वो तो बस यह चाहता है की कोई उसे गुनाहों से बचाये और उस पर गुनाह होने से
रोके. यह सब उसे जिस से भी मिला जाये वही उसके लिये इश्वर बन जाता है.
हमारी
विजय पताका की हम इस सृष्टी का सबसे बेहतर माल है का पूरा खेल याददाश्त और
तर्कबुद्धी का है. इसमे से किसी एक को गायब कर दो तो मामला खत्म. इस ब्रहमांड में
लाखों करोडों आकाश गंगाये है और हर आकाशगंगा में अरबों तारे है और उसमे से एक तारा
सूर्य है और उसका एक ग्रह पृथ्वी जिस पर हम रह्ते है. पृथ्वी को कुछ सौ किलोमीटर
उपर से देखें तो हम नजर आना बंद हो जाते है, कुछ हजार किलोमीटर उपर से
देखे तो हमारे शहर दिखना बंद हो जाते है. अब आप समझ सकते है की इस ब्रहमांड की
तुलना में हमारी हेसियत क्या है.
हम
इसानों ने याददाश्त और तर्क बुद्धी का भरपूर उपयोग किया. हम इंसान को छोडकर बाकी
जीव अपनी सिमित याददाश्त और बुद्धी के साथ अपने चारों और के माहोल के साथ सामंजस्य
बैठाकर जीते रहे और जब माहोल बदला तो उनका जीना दूभर हो गया. पर हम इंसान इस से
अलग साबित हुये हमने अपने तर्क बुद्धी की असीम संभावनाओं को पहचाना और उसका विकास
किया. विज्ञान, खोज और आविष्कार सब तर्क बुद्धी का ही तो कमाल है. हम में से कुछ ने सहारा
रेगीस्तान और साइबेरिया जेसी विषम परिस्थतियों में जीना सीखा है. हमने हर
बदली हुई परिस्थति में जीना सीखा. यंहा तक की हमने चांद पर भी अपनी उपस्थति दर्ज
करा दी.
हमारे
पास विकिसित दिमाग है जो सोच सकता है याद रख सकता है और विशलेषण कर सकता है, तर्क कर सकता है. यही सब
हमे एक जानवर से अलग करता है. हमने जेसे ही आग का इस्तेमाल करना और खेती करना सीखा
हमारी जिंदगी बदल गई. इन खोजों ने हमे रोज खाने के लिये भटकने से बचा लिया.
हमारी जिंदगी बदल गई हम घुमंतु खाना बदोश से अब विकिसित सभ्यता के साथ गांव और शहर
बनाने लगे. इतना सब होने के बाबजूद जन्म, मृत्यु, बिमार होना, और प्राकृतिक विपदाये
जेसे भूकंप, बाढ, सूखा, महामारी एसे अन सुलझे रहस्य थे
जिसका जबाब हमारे पास नही था.
हमने
जाना की ब्रहमांड और जीवन कुछ प्राकृतिक नियमों से चलते है. और वो नियम सब पर लागू
होते है. जिसे हम बदल नही सकते पर उसे समझ कर उसका मन चाहा उपयोग जरूर कर सकते है.
विज्ञान उन नियम को समझ कर उसका भरपूर उपयोग कर रहा है और नित नया सृजन कर रहा है.
साथ ही उसके डर ने विनाश के हथियार बनाये और लालच ने बेहिसाब प्राकृतिक संसाधनों के
दोहन किया. इस तरह वो अपने लिये नित नई मुसीबत खडी करता जा रहा है. असल में हम समझ
बेठे है की हम इंसान इश्वर की सबसे बेहतर और अनूठी रचना है. और वो हमे हर हाल में
और हर कीमत पर बनाये रखेगा. जो सच नही है. विशाल सृष्टी में हमारी औकात
बहुत तुच्छ है. और जिस पृथ्वी के हम वासी है वो दूसरे सितारे से दिखाइ भी नहीं
देती. अब यह बताओ की हम में ऐसा क्या है की वो हमारे लिये अपने ही बनाये नियम को
तोडता रहे.
जल्द
ही हमे समझ आ गया की एक से दो भले...और दो से तीन...हमे समूह मे रहने के फायदे नजर
आने लगे. समाज जेसे जेसे जटिल होता गया उनकी व्यवस्था को चलाने के लिये नियम
कायदे और कानून की जरूरत पडने लगी. समूह बनाये रखने और उसे बढाने के लिये अनुशासन, नियम और कायदे चाहिये.
शायद इसी सब वजह से धर्म का उदय हुआ होगा. और धर्म ने ईश्वर को जन्म दिया. इसीलिये हर समूह का अपना – अपना इश्वर और धर्म बना. इस तरह ईश्वर अंधो का हाथी हो गया.
अंधे को हाथी का जो अंग पकड में आया वो उसकी वेसे ही कल्पना करने लगा. अपने अपने
ईश्वर के अपने अपने धर्म. जिसे अपना कर वो उस तक जा पाने का दावा करने लगे. उसके
साथ ही पाप और पुण्य का जन्म हुआ. पुण्य वो जो उसे समाज के रितीरिवाजों के अनुसार
चलने को बाध्य करे. और पाप वो कर्म जो उन रिती रिवाजों के विरूध जाता हो. धर्म के
ठेकेदारों ने इसे ईश्वर की इच्छा से जोड दिया और उनके वाक्य इश्वरीय वाक्य बन गये
और उनका हुक्म इश्वरीय हुक्म. इस तरह वो राज व्यवस्था का सहयोगी बना.
राजानिति
ने धर्म का दामन थामा उसके बाद दोनों एक दूसरे के पूरक बन गये. धर्म के नाम पर अब
लोग मरने मारने के लिये तैयार थे. धर्म के नाम पर जितना खून बहा शायद और किसी वजह
से नहीं बहा. सच यह है कि कुछ लोग राज करना चाहते है खुद इश्वर बनना चाह्ते है, वो चाह्ते है उसके हर
अच्छे और बुरे हुक्म का अक्षरश: पालन हो. जिसेके साथ चाहे वो जेसा चाहे कर सके.
समय के साथ, नये
समाज बने, नगर
बसे, नित नई
खोज और आविष्कार हुये और बहुत सारा सृजन हुआ. उसके साथ ही हमारे पास इतनी विनाश की
ताकत आ गई की हम पृथ्वी पर मोजूद जीवन को कई बार समाप्त कर सकते है....
इश्वर
के कई रूपों में व्याख्या होने लगी जिसमे से दो रूप ज्यादा प्रचलित हुये. एक
निराकार सर्व व्यापी रूप और दूसरा जिसमे उसे एक राजा एक पेगम्बर के रूप में देखा गया. दोनों
ही रूपों मे वो आम आदमी की पहुंच से दूर माना गया. उस तक पहुंचने के लिये विशेष
पूजा और पूजारी की जरूरत बनाइ गई.
अकसर
लोग मदिंर मस्जिद मे इबादत इसलिये करते है की वो उन्हे उसके नियम से परे जाकर उसकी
मदद कर दे उसके लिये नियम बदल दे. सच भी है कि जो नियम बना सकता है वो नियम
बदल भी सकता है या उसे तोड भी सकता है. सवाल इस बात का नहीं है की वो नये नियम बना
सकता है या नहीं या फिर वो अपने बनाये नियम तोड सकता है या नहीं सवाल यह है की वो
ऐसा क्यों करेगा और कितनी बार करेगा.
पाप
क्या है और पुण्य़ क्या है...क्या हम किसी भी एक घटना और व्यवाहर का पाप और
पुण्य़ तय कर सकते है. जो हर परिपेक्क्ष में हर कोण से हर काल मे वो एक जेसी ही
परिभाषित हो! अगर एसा नही तो फिर पाप और पुण्य़ पर इतना जोर क्यों.
अगर पाप और पुण्य़ समाज, काल और स्थान तय करता है तो इसे उस समाज, काल और स्थान तक
ही सिमित क्यों नही रखा जाय. कम से कम इससे इश्वर के नाम पर होने वाले बेहिसाब खून
खराबे को रोका जा सकता है.
अच्छ-बुरा, स्वर्ग-नर्क, प्यार-नफरत, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्, सुखदुख, रात दिन, दोस्त दुश्मन, सब सापेक्ष है और एक के
बिना दूसरे का आस्तित्व नहीं है. क्या duality के बिना दुनिया बनी रह सकती है या नही. अगर नही तो GOD का रोल हमारी रोजमर्रा की जिदंगी के क्या है...और उसको जानने और ना जानने
से क्या फर्क पडता है?
मूल
सवाल हमारे होने कि वजह क्या है. इंसान होने का मतलब क्या है. इंसान के रूप में
हमारी क्या जिम्मेदारी है. हमारी क्या सीमायें है क्या हम सच में इश्वर रूप है
क्या सच मैं उसने हमे अपनी सब ताकतों से नवाजा है. अगर यह सच है तब हमे अब किस
इश्वर की जरूरत है! उपरोक्त सवालो को समझने के लिये हमे ज्ञान और चेतना के सबंध को
समझना होगा. चेतना सर्व व्यापी है और असीम ज्ञान का स्रोत है वो सबके लिये उपलब्ध
है. चेतना का स्तर किसी में शून्य के करीब हो सकता है जिसे आप जड कह सकते है और
किसी मे वो असिमित होकर इश्वरीय हो जाता है.
डर, और लालच चेतना के स्तर को नीचे ले जाता है वंही प्यार और भरोसा उसे नई उचाइ पर ले जाता है. यह आप पर निर्भर है की आप चेतना युक्त ज्ञान को किस स्तर पर ले जाना चाहते है. अब यह ज्ञान लेने वाले के उपर है की वो क्या लेना चाहता है कैसे लेना चाहता है. उसे पूरी आजादी है की वो उसका क्या मतलब निकालता है और उसे कैसे उपयोग करता है,. पर साथ ही उससे होने वाले अच्छे बुरे परिणाम से भी वो बच नहीं पायेगा.. वो ही नहीं उसका असर उन पर भी हो सकता है, जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं होगा. शायद इसी डर से गुरु को अपने शिष्य को ज्ञान देने के पहले पात्र और कुपात्र के बारे में सोचने के लिये कहा गया.
डर, और लालच चेतना के स्तर को नीचे ले जाता है वंही प्यार और भरोसा उसे नई उचाइ पर ले जाता है. यह आप पर निर्भर है की आप चेतना युक्त ज्ञान को किस स्तर पर ले जाना चाहते है. अब यह ज्ञान लेने वाले के उपर है की वो क्या लेना चाहता है कैसे लेना चाहता है. उसे पूरी आजादी है की वो उसका क्या मतलब निकालता है और उसे कैसे उपयोग करता है,. पर साथ ही उससे होने वाले अच्छे बुरे परिणाम से भी वो बच नहीं पायेगा.. वो ही नहीं उसका असर उन पर भी हो सकता है, जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं होगा. शायद इसी डर से गुरु को अपने शिष्य को ज्ञान देने के पहले पात्र और कुपात्र के बारे में सोचने के लिये कहा गया.
हमारे
होने का कारण हमे खुद खोजना होता है या फिर कोइ भी अकल मंद और ताकतवर हमारा
इस्तेमाल अपने तरीके से कर सकता है. अच्छ हो की हम खुद अपने मकसद को खोजे. इससे भी
ज्यादा जरूरी है की जिस समाज मे आप रह रहे है उसे जाने समझे और तय करे कि उसे क्या
दिशा देनी है और फिर उस पर अमल करे. जिस तरह प्राकृति के नियम नास्तिक और आस्तिक
मे फर्क नही करते उसी तरह हम भी ना करे. और समाज/ समूह के हित मे जो ठीक है उसे ही
करे और उसे ही माने यही समर्पण भाव आपके पाप और पुण्य के निरधारण का कारण भी बने.
तभी उस समूह/ समाज का भला हो सकता है.
आज हम उस दौर से गुजर रहे है उसमे हमारे मूल्य हमारे निर्णयों से मेल नही खाते है. और हमारे अदंर डर और ग्लानी का भाव पैदा कर रहे है. जो हमारी चेतना की नीचे की ओर ले जाता है. इसलिये अपने मूल्यों और संस्कारों का पुन: निरिक्षण करे. आज के इस इंटरनेट युग में
ग्लोबल सोच पैदा करे. समाज, देश, और धर्म से उपर उठकर ग्लोब के बारे मे सोचे...इस
पृथ्वी के बारे मे सोचे उसके पर्यावरण के बारे मे सोचे. जब भी एसा करेगे अपने आपको
इश्वरीय गुण से भरपूर पायेगे.
आज हम उस दौर से गुजर रहे है उसमे हमारे मूल्य हमारे निर्णयों से मेल नही खाते है. और हमारे अदंर डर और ग्लानी का भाव पैदा कर रहे है. जो हमारी चेतना की नीचे की ओर ले जाता है. इसलिये अपने मूल्यों और संस्कारों का पुन: निरिक्षण करे. आज के इस इंटरनेट युग
जो
कुछ भी उपर लिखा है उसमे नया कुछ भी नही है. दिमाग है तो सोचेगा...सोचेगा तो
करेगा...करेगा तो उसका परिणाम भी होगा पर परिणाम सबके लिये एक सा नही हो सकता वो
सबके लिये अलग होगा...उसका मतलब भी सब अपने-अपने ढंग से निकालेंगे...एसे ही दुनिया बनती है बिगडती है और चलती है विनाश होती है और फिर बनती है
god
ko samajhane से पहले इस दुनिया को समझना
जरूरी है. और दुनिया के इस बृहद रूप मे समझने के लिये divergence
thinking develop kar enjoy the infinte...क्योंकी convergence
thinking ...will lead to ekroop........ओर आप गये समाधी
में....यानी अकर्म ...और अकर्म पर कर्म हमेशा हावी रहेगा और अकर्मियों का इस्तेमाल
अपने लिये करेगा.
सर , नीचे लीखी equation पर ध्यान दिया जाये...
कल्पना+विचार+विश्वास+तर्क+खयाल+राय=सिद्धांत, भाव, मत, उद्देश्य,धारणा,योजना , परिणाम,जानकारी, कर्म
.....देखा
गया ना सब सिर के उपर से ....... चलो अब
बहुत हुआ...
एक
बार फिर HAPPY
DIWALI.....
दुर्वेश
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